Monday, July 27, 2015

नाम में क्या रखा है



मित्रो !
      किसी को उसके प्रथम नाम से सम्बोधित करने में प्यार, निकटता और मित्रता का आभाष होता है, मध्य नाम से सम्बोधित करने से थोड़ी निकटता और थोड़ी औपचारिकता का तथा अन्तिम नाम से सम्बोधित करने पर मात्र औपचारिकता का आभाष होता है। 
      प्रथम परिचय के अवसर पर हमें अपना पूर्ण नाम बताना चाहिये। यदि हम नाम बताने में आद्यक्षर (नाम के प्रथम अक्षर) बताते हैं तब हमें उसके साथ पूरा नाम भी बताना चाहिए। उदाहरणार्थ "के. पी. सिंह, कृष्ण प्रताप सिंह". अधीनस्थ को प्रथम नाम से बुलाने पर कार्य प्रबंधन पर अच्छा प्रभाव पड़ता है।


सकल पदारथ हैं जग माहीं


मित्रो !

      ईश्वर ने हमारे लिए इस जगत और जगत में विभिन्न प्रकार के संसाधनों तथा कर्मों की रचना की है। उसने संसाधनों के उपयोग के लिए ज्ञान की रचना की है। कर्मों के चयन और कर्म करने की हमें स्वतंत्रता दी है। हम में से जो कर्मठ है वह ज्ञान अर्जित कर संसाधनों के सदुपयोग से सुख पा रहा है, जो अज्ञानी है वह कर्महीन रहकर या संसाधनों का दुरुपयोग कर दुःख भोग रहा है। 

     गोस्वामी तुलसीदास जी ने उचित ही रचना की है "सकल पदारथ हैं जग माहीं, कर्महीन नर पावत नाहीं। हमें चाहिए कि हम ईश्वर का दिया हुआ ज्ञान अर्जित करें, उचित कर्मों का चयन करें और ईश्वर प्रदत्त संसाधनों का सही प्रयोग कर उचित कर्म करते हुए सुखमय जीवन जियें, हमें जगत में लाने के लिए और इतना सब कुछ देनें के लिए उस परम पिता का गुण गान कर उसका धन्यवाद करें।



मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं : Man Creates His Own Fate


मित्रो !
      कर्म, कर्मफल और पुनर्जन्म के सिद्धान्तों के अनुसार मनुष्य स्वयं अपने भाग्य की रचना करता है। फल प्राप्ति की इच्छा से किये गए सभी अच्छे-बुरे कर्मों के फल मनुष्य को इसी जन्म में या अगले जन्मों में भोगने पड़ते हैं। गीता के अनुसार कर्म के चयन का अधिकार मनुष्य को प्राप्त है।

      मनुष्य के भाग्य में उसके स्वयं के द्वारा फल प्राप्ति की इच्छा से पूर्व जन्मों में किये गए कर्मों में से ऐसे कर्मों के फल होते हैं जिनके फल उसे पूर्व जन्मों में प्राप्त नहीं हुए होते हैं। ऐसे कर्म संचित कर्म जाने जाते हैं। संचित कर्म मनुष्य के अपने द्वारा किये गए कर्मों की पूँजी होती है, ऐसे कर्म ही मनुष्य के भाग्य की रचना करते हैं।  





किस्मत पर भरोसा करना अज्ञानता


मित्रो !

      किस्मत पर सब कुछ छोड़ देने वाले व्यक्ति की अपनी जीवन नौका दिशाहीन होकर आगे बढ़ती है। ऐसे में वह कभी सुखदायी छाँव भरे रास्ते से गुजरता है तो कभी तपिस भरे कटीले रास्तों से। ऐसे व्यक्ति के लिए विकल्प नहीं रह जाते, जबकि अन्य व्यक्तियों के लिए विकल्प सदैव उपलब्ध रहते हैं।




Tuesday, July 21, 2015

ताकि बच्चे संस्कारी बने

मित्रो !
     प्यार और प्यार की भाषा, दोनों ही ऐसे होते हैं जिनको अबोध बच्चे से लेकर मृत्यु शैय्या पर पड़ा व्यक्ति दोनों ही समझते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि कोई भी प्यार खोना नहीं चाहता। अपने प्रिय को प्रसन्न रखने के लिए लोग न जाने क्या-क्या कर गुजरते हैं। इन्हीं कारणों से प्यार के बल पर हम अपने बच्चों को संस्कारी बनाये रखने में भी सफल हो सकते हैं। यह पोस्ट मेरी इसी सोच पर आधारित है। 

    प्यार में बहुत बड़ी शक्ति होती है। इसका उपयोग हम बच्चों को संस्कारी बनाने में कर सकते हैं। हमें चाहिए कि हम अनुकरणीय आचरण करते हुए अपने बच्चों को इतना प्यार दें कि उनके अन्दर आत्मीयता जन्म ले और वे कुछ भी अनुचित करने से पहले माँ-बाप का प्यार खो देने का डर महसूस करें।



प्यार तेरे रूप अनेक


मित्रो !

      प्यार के अनेक रूपों में से एक रूप छोटों द्वारा अपने बड़ों के प्रति व्यक्त किया जाने वाला सम्मान या आदर का है। इसी प्रकार बड़ों द्वारा अपने छोटों के प्रति व्यक्त किया जाने वाला स्नेह भी प्यार का ही एक रूप हैं। छोटों और बड़ों के बीच रिश्तों की मजबूती इसी प्यार पर निर्भर करती है।

Friends!
One of the many forms of love is the honor or respect given by young to their elders.  Similarly, the affection shown or expressed by elders for the little ones too, is a form of love. The strength of relationship between little ones and adults depends on this love.



उचित वही जो अनुकरणीय हो


मित्रो !

       परिवार में बड़े अपने आचरण से अपने छोटों के सामने जो उदहारण प्रस्तुत करते हैं, छोटे उसी का अनुसरण करते हैं। अतः हमें ऐसे कार्य नहीं करने चाहिये जिनका हम अपने छोटों द्वारा वर्तमान या भविष्य में किया जाना उचित नहीं समझते। ऐसा न होने पर छोटों की नज़रों में बड़े सम्मान खो देते हैं। 

        गीता के अध्याय 3 के श्लोक 21 के अनुसार कृष्ण ने अर्जुन को निम्नलिखित उपदेश दिया है :
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।
     महापुरुष जो-जो आचरण करता है, सामान्य व्यक्ति उसी का अनुसरण करते हैं। वह अपने अनुसरणीय कार्यों से जो आदर्श प्रस्तुत करता है, सम्पूर्ण विश्व इसका अनुसरण करता है।



दुःख का कारण


मित्रो !

      भौतिक शरीर या उसके किसी अंग में किसी कारणवश विकृति या विकार आ जाने से शारीरिक पीड़ा उत्पन्न होती है जबकि मोह और अज्ञान से सभी मानसिक दुःख उत्पन्न होते हैं। सादगी और उचित आहार-विहार से शारीरिक कष्ट तथा मोह त्याग से मानसिक कष्ट कम किये जा सकते हैं।


निर्णय गलत या छलावा


मित्रो !

     यदि आप किसी व्यक्ति को कर्मठ और अच्छे चाल-चरित्र का जान कर उस पर विश्वास करते हैं किन्तु अवसर आने पर वह व्यक्ति आपके विस्वास पर खरा नहीं उतरता तब या तो ऐसे व्यक्ति के सम्बन्ध में आपका निर्णय गलत रहा होता है या फिर ऐसे व्यक्ति द्वारा अपना असली चाल-चरित्र छिपाकर आपको छला गया होता है।


अदृश्य अस्तित्वहीन नहीं


मित्रो !

      प्रभाव उत्पन्न करने वाली अदृश्य वस्तुयें भी अस्तित्व में होतीं हैं। जिस प्रकार वायु दिखाई नहीं देती किन्तु उसके प्रभाव देखे और महसूस किये जा सकते हैं, उसी प्रकार हमें ईश्वर प्रत्यक्ष में नहीं दिखाई देता किन्तु उसके प्रभाव देखे और महसूस किये जा सकते हैं। इस आधार पर ईश्वर के अस्तित्व को नाकारा नहीं जा सकता।



इतना अज्ञान क्यों : Penny Wise Pound Foolish


मित्रो !

      कितनी विडम्बना है कि पैर में काँटा लगने के भय से हम रास्ते में पड़े काँटे को बचाकर निकल जाते हैं, दुर्गन्ध भरे स्थान पर हम नाक बन्द कर अथवा सांस रोककर निकल जाते हैं किन्तु हमारे बीच अनेक लोग अपने को व्यभिचार, दुराचार, आदि जैसे बड़े खतरों का आसानी से शिकार होने देते है और अपना भावी जीवन नर्क बना लेते हैं। यह अज्ञान नहीं तो और क्या है?


ईश्वर से डरना हितकर : Fear of God Keeps Us on Right Track


मित्रो !


          हमारी धारणा है कि यदि हम कुछ गलत करेंगे तब ईश्वर हमें  दण्डित करेगा। हमारी यही धारणा हमें कुछ भी गलत करने से रोकती है। अतः दुष्कृत्यों को लेकर ईश्वर से डरना हमारे लिए हितकर है।
               जो लोग ईश्वर को मानते हैं उनका विस्वास होता है कि कुछ गलत करने से ईश्वर अप्रसन्न (Displease) हो जाता है। अतः वे कुछ भी गलत नहीं करते। इस प्रकार वे सत्य के मार्ग पर बने रहते हैं। 




प्यार और नफ़रत के स्त्रोत


मित्रो !
      प्यार और नफ़रत दोनों ही हमारे अन्दर होते हैं। यह दोनों ही बाह्य कारणों से प्रेरित होते हैं। जैसे सुसुप्ता अवस्था में पड़ा बीज अनुकूल हवा और पानी पाकर अंकुरित होने लगता है उसी प्रकार प्यार और घृणा भी अपने-अपने अनुकूल वातावरण पाकर क्रियाशील हो उठते हैं।

     मेरा विचार है कि प्यार और नफ़रत दोनों पर नियंत्रण पाने के लिए आत्म संयम का होना आवश्यक है। प्यार या नफ़रत के बीज बोने की आवश्यकता नहीं होती केवल उनके अनुकूल वातावरण बनाना होता है।



Wednesday, July 8, 2015

नेक कर्मों में योगदान

मित्रो !
        जहाँ आप किसी अन्य के द्वारा किये जा रहे किसी नेक काम में अपना योगदान कर पाने के इच्छुक होते हुए भी अपना योगदान कर पाने में अपने को असमर्थ पाते हैं वहाँ पर भी आप नेक काम और नेक काम करने वाले की प्रसंशा करके अपना योगदान कर सकते हैं।

         नेक काम और नेक काम करने वाले की प्रसंशा करने से नेक काम करने वाला व्यक्ति प्रोत्साहित होता है और उसके अन्दर नयी ऊर्जा का संचार होता है। ऐसा होने पर नेक काम करने वाले का मनोबल बढ़ता है। अच्छा कार्य करने वाले का मनोबल बढ़ाना भी एक नेक काम है।



भला करें : DO GOOD


मित्रो !

         यदि परिस्थितिवश हम इच्छित या अपेक्षित भला नहीं कर सकते तब हमें परिस्थितियों को अनुकूल बनाने का प्रयास करना चाहिये। यदि हम परिस्थितियाँ नहीं बदल सकते तब हमें निराश हुए बिना वह भला करना चाहिए जिसके करने के लिए परिस्थितियाँ अनुकूल हों। 

        जहाँ बेहतर परिस्थिति का निर्माण करना सम्भव न हो वहाँ पर हमें विद्यमान परिस्थितियों में ही बेहतर करने का प्रयास करना चाहिए।



कोई व्यक्ति किसी की जागीर नहीं : A Person is Nobody's Property


मित्रो !

          एक मकान के सम्बन्ध में मकान का स्वामी किन-किन अधिकारों का प्रयोग कर सकता है -वह इसमें रह सकता है, आधिपत्य और नियंत्रण रख सकता है, इसको बेच सकता है, खाली रख सकता है, किसी को गिफ्ट में दे सकता है, गिरबी रख सकता है, ध्वस्त (Demolish) स्वयं कर सकता है या करबा सकता है, आदि-आदि। मान लीजिये मैं एक मकान अपने रहने के लिए किराये पर लेता हूँ। ऐसी स्थिति में मकान के सम्बद्ध में मुझे उसमें रहने मात्र का केवल एक अधिकार ही प्राप्त है, मैं मकान के सम्बन्ध में अन्य अधिकारों का प्रयोग नहीं कर सकता। यदि हम मकान में निहित सभी संभव अधिकारों के परिपेक्ष्य में अपने और मकान के मालिक के मकान से सम्बन्ध पर विचार करें तब हम पाते हैं कि मकान के सम्बन्ध में मकान मालिक को सभी अधिकार प्राप्त हैं, वह मकान में निहित सभी अधिकारों का स्वामी है। इसके विपरीत मकान के सम्बन्ध में मुझे सभी अधिकार प्राप्त नहीं हैं, केवल उसमें रहने का एक अधिकार ही प्राप्त है और मैं किरायेदार हूँ। मकान मालिक के लिए मकान उसकी संपत्ति है जब कि मेरे लिए मकान केवल एक मकान है जिसे मैंने रहने के लिए किराये पर लिया हुआ है। 

        किसी वस्तु के किसी मनुष्य की संपत्ति होने के लिए ऐसे मनुष्य को ऐसी वस्तु में निहित सभी अधिकार, जिनमें वस्तु को नष्ट करने का अधिकार भी शामिल होता है, प्राप्त होने चाहिये। इस दृष्टिकोण से कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति की संपत्ति नहीं है।
        इस दृस्टि से पति, पत्नी, सास, ससुर, दादा, दादी, बेटे, बेटी, भाई, बहिन, माँ, बाप, आदि जो अपने कहे जाते हैं को भी शारीरिक यातना देने का किसी को अधिकार प्राप्त नहीं है। यह सामाजिक रिश्ते हैं, कोई किसी की संपत्ति नहीं है। कानून द्वारा निर्धारित दायित्वों के निर्वहन या प्रदत्त अधिकारों के सिबाय अन्य किसी को भी किसी को शारीरिक यातना देने का अधिकार नहीं है।
        कामर्शियल टैक्स विभाग के मित्र इस पर विचार कर सकते हैं कि वैट अधिनियम या केंद्रीय बिक्रीकर अधिनियम में नकद, आस्थगित भुगतान या अन्य किसी मूलयवान प्रतिफल के लिए एक व्यक्ति द्वारा किसी दूसरे व्यक्ति को किसी माल में संपत्ति के अन्तरण को सामान्य रूप से "बिक्री" परिभाषित किया गया है (डीम्ड सेल को छोड़कर) । यहां "संपत्ति" से अभिप्राय माल में निहित सभी अधिकारों (जो भी संभव हो सकते हैं) से ही है।




श्रेष्ठ भोजन पर विचार करें


मित्रो !

          हमारे बीच जो लोग कोई पालतू जानवर पालते है उनमें से लगभग सभी लोग पालतू जानवर के बारे में यह सोच कर ही कोई चीज पालतू जानवर को खाने को देते हैं कि ऐसी चीज उसे नुकसान तो नहीं करेगी। किन्तु यह विडम्बना है कि उनमें से अधिकाँश लोग अपने और अपने प्रियजनों के भोजन के बारे में ऐसा नहीं सोचते। यही स्थिति अन्य लोगों के विषय में भी है। मेरा मानना है की प्रत्येक मनुष्य को ऐसे भोजन को ही लेना चाहिए जो श्रेष्ठ हो। 
         श्रेष्ठ भोजन वह होता है जो शरीर के लिये आवश्यक पोषक तत्व प्रदान करे, जो सुपाच्य हो और जिसके दुष्प्रभाव (Side Effects) हमारे स्वास्थ्य पर न हों। ऐसा भोजन हमें शक्ति और स्फूर्ति देने के साथ-साथ दीघायु प्रदान करता है। ऐसा भोजन हमें नीरोग रखता है, हमारी कार्य क्षमता तथा दक्षता में बृद्धि करता है। अच्छे भोजन से हमारे अंदर अच्छी सोच उत्पन्न होती है। हम अनेक प्रकार के विकारों से बचते हैं। 
        भारतीय संस्कृति में विभिन्न प्रकार के रसों और स्वादों वाले श्रेष्ठ भोजन उपलब्ध हैं फिर स्वाद और रस के चक्कर में अनुपयुक्त भोजन क्यों? हमें चाहिए कि हम श्रेष्ठ भोजन के ही लेने पर विचार करें।




व्यवहारिक जीवन में उछल-कूद अनावश्यक


मित्रो !

         उछल-कूद खेलों तक तो ठीक है किन्तु व्यवहारिक जीवन में उछल-कूद के बजाय शालीनता और धैर्य के साथ प्रयास करना ही मनुष्य को शोभा देता है। इससे ऊर्जा का अपव्यय नहीं होता और प्रयासों में निरन्तरता बनी रहने से लक्ष्य आसानी से प्राप्त हो जाता है।


उछल-कूद : अध्यवसाय, आवेग, उत्सुकता, व्यग्रता आदि का अनाचक ऐसा दिखौआ प्रयत्न जो अंत में प्रायः निरर्थक सिद्ध हो।




धर्म : विस्तार और सशक्तिकरण

मित्रो!
          समय के साथ-साथ किसी भी धर्म के मानने वालों की संख्या स्वतः ही बढ़ती जाती है क्योकि लगभग सभी मामलों में नयी पीढ़ी को धर्म के संस्कार संतान के माता-पिता से प्राप्त होते हैं। अतः धर्म का विस्तार तो लगातार होता रहता है। किन्तु अशिक्षा, अज्ञानता, अन्धविश्वास, स्वार्थपरता और धर्म के अनाचरण से धार्मिक मूल्यों का पतन होता रहता है। ऐसी स्थिति में धार्मिक मूल्यों के सशक्तिकरण के निरन्तर प्रयासों की आवश्यकता होती है। 
मैं यह नहीं कहता कि किसी धर्म के अनुयायियों को अपने धर्म का प्रचार व प्रसार नहीं करना चाहिए किन्तु प्रचार का तरीका ऐसा होना चाहिए कि अन्य धर्मों के लोग नए धर्म की अच्छाइयों की बजह से उसे अपनाने का निर्णय करें, किसी को अपना धर्म किसी दूसरे पर थोपना नहीं चाहिए और न ही किसी व्यक्ति को अपना धर्म छोड़कर नया धर्म अपनाने के लिए लोभ-लालच दिया जाना चाहिए।


        सनातन धर्म अनुयायियों के धार्मिक ग्रंथों श्रीमद भगवद गीता और रामचरित मानस में ईश्वर के अवतरण का उद्देश्य धार्मिक मूल्यों की पुनर्स्थापना ही बताया गया है। 
श्रीमद भगवद गीता
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।।
(जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है)
रामचरित मानस
जब-जब होइ धरम की हानी।
बाढ़ेँ असुर अधम अभिमानी।। 
तब-तब धरि प्रभु मनुज शरीरा।
हरहिं कृपा निधि सज्जन पीरा।।
        हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि महाभारत में धर्म के अनुसार आचरण करने वाले पांडवों की छोटी सी सेना धर्म के विपरीत आचरण करने वाले कौरवों की विशालकाय सेना पर भारी पड़ी थी। कृष्ण ने भी धर्म के अनुयायियों का ही साथ दिया था। इससे तो यही लगता है कि धर्म का अनाचरण करने वाले सौ कौरवों और धर्म का आचरण करने वाले पांच पांडवों में से धर्म का आचरण करने वाले पांच पांडव ही ईश्वर को प्रिय थे। 
*****

       इस पोस्ट के पीछे मेरा उद्देश्य किसी की धार्मिक भावनाओं को आहत करने का नहीं है। फिर भी यदि किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचती है तब मेरा उससे अनुरोध है कि वह मेरी अज्ञानता समझ कर मुझे क्षमा कर दे।


अपना धर्म


मित्रो !

         प्रत्येक व्यक्ति के लिए अपना धर्म अन्य सभी धर्मों की अपेक्षा बेहतर होता है किन्तु इसका अभिप्राय यह कदापि नहीं है कि कोई व्यक्ति किसी अन्य धर्म का आचरण कर रहे किसी व्यक्ति के धर्म की निन्दा करे। हमें चाहिए कि हम दूसरे के धर्म की निन्दा करने से बचें। 
         प्रत्येक व्यक्ति की उसके अपने धर्म के साथ उसकी आस्था जुडी होती है। किसी की आस्था को चोट पहुँचाना एक अमानवीय कार्य है।



खाली वक्त करें प्रभु के नाम


मित्रो !

             जिस समय में हमारे पास अपने या औरों के लिए कोई उपयोगी कार्य करने के लिए न हो वह खाली समय होता है। ईश्वर के स्मरण का कार्य ऐसा कार्य होता है जो कभी पूरा नहीं होता और जिसके करते हम थकते भी नहीं हैं। खाली समय का सदुपयोग हम ईश्वर के स्मरण कर्म में कर सकते हैं। ईश्वर के स्मरण से हमारे अन्दर सदगुणों का विकास होता है और सत्कर्मों में हमारा विश्वास बढ़ता है। 
            प्रभु के स्मरण का कार्य ऐसा है जिसे हम किसी भी समय कर सकते हैं। जब हम खाली समय को ईश आराधना में व्यतीत करते हैं तब हमारे मन में अवांछित विचार जन्म नहीं लेते (Empty mind is a devil's workshop), हमारे खाली समय का सदुपयोग हो जाता है और हम ईश्वर के स्मरण का आनंद भी पा लेते हैं। यह तो वही हुआ कि -
खाली समय करें प्रभु के नाम। 
आम के आम, गुठलियों के दाम।।
           जो लोग ईश्वर को नहीं भी मानते हैं वे भी अपने खाली समय में सदगुणों और सत्कर्मों का चिंतन करते हुए अपने अंदर इनके प्रति आत्मबल बढ़ा सकते हैं।



मृत्यु उपरान्त प्यार


मित्रो !

          यदि हम अपने छोटों से प्यार करते हैं और चाहते हैं कि हमारी मृत्यु के बाद भी हमारा प्यार और आशीर्वाद उन्हें मिलता रहे तब हमें चाहिए कि हम अपने जीवित रहते उन्हें भरपूर प्यार दें, हम अपनी जीवन शैली को अनुकरणीय बनायें और ऐसे आदर्शों को जियें जो हमारे जाने के बाद भी हमारे छोटों का पथ प्रदर्शन करते रहें।



ताकि गरीब, गरीब न रहे


मित्रो !

          यदि हम चाहते हैं कि शहरों और गाँवों में रह रहे सभी लोगों का विकास हो और गाँवों में रह-रहे गरीबों की गरीबी दूर हो तब हमें समझना होगा कि केवल गाँवों से शहरों की ओर जाने वाले रास्तों का होना ही पर्याप्त नहीं हैं, हमें समान रूप से शहरों से गाँवों की ओर जाने वाले रास्तों को भी विकसित करना होगा। गाँवों की शहरों पर निर्भरता को कम करना होगा और शहरों की गाँवों पर निर्भरता को यथासंभव बढ़ाना होगा। 

          मेरा मानना है कि मनरेगा जैसी योजनाओं की सामयिक आवश्यकता है किन्तु ऐसी योजनायें निर्भरता बढ़ाती है आत्म-निर्भरता को बढ़ाबा नहीं देती जबकि गरीबी के उन्मूलन के लिए ऐसी योजनाओं की आवश्यकता है जो गरीब और बेरोजगारों को आत्म-निर्भर बनायें। इसके लिए भूमिहीनों और कम भूमि रखने वाले किसानों के लिए अतिरिक्त संसाधन मुहैया कराने के लिए कृषि, बन, प्राकृतिक सम्पदा और पशु पालन से सम्बंधित छोटे उद्योग गाँवों में स्थापित करने होंगे। ऐसे उद्योगों की गाँवों में स्थापना को प्रोत्साहित भी करना होगा।



यह मन बड़ा जिद्दी है

मित्रो !
          यह मन बड़ा जिद्दी है। बहुत समझाया कि हथेली पर आम नहीं उगता, रोम का निर्माण एक दिन में नहीं हुआ था और सूरज पश्चिम से नहीं निकलता। पर मन का मानना है कि वह दिन लद गए जब यह सब लागू होता था, अब इंटरनेट और मीडिया का जमाना है, पलक झपकते सब कुछ हो जाता है।
          जब मैंने मन को बहुत समझाने का प्रयास किया और उसे बताया कि B. K. S. Iyengar को पद्म श्री से पद्म भूषण और फिर पद्मविभूषण की यात्रा करने में लगभग 25 वर्ष लग गए तब मेरे मन ने बगावत कर दी, कहने लगा कि फिर भी भारत रत्न से चूक गये। अगर इंटरनेट का सहारा लेते तब बहुत कम मेहनत किये ही जो कुछ मिला उससे अधिक पा लेते। मेरे मन का मानना है कि जिस दिन कोई इंटरनेट और मीडिया का सहारा लेगा उस दिन वह B.K.S. Iyengar से आगे निकल जायेगा।

बेबसी का योग


       विश्व में आबादी का एक बड़ा भाग ऐसा भी है जो कभी-कभी दो जून की रोटी भी नहीं जुटा पाता है, जिसका भूख के मारे पेट और पीठ दोनों मिल जाने से पेट-पीठ जोड़ लेने का अनचाहा योग हो जाता है। सर्दियों में वस्त्रों के अभाव में जिसके घुटने सीने से और सिर घुटनों पर बेबसी में लग जाने से योग हो जाता है। काश उन्हें कोई बेबसी के योग से छुटकारा दिलाने की भी बात करता।

अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस


मित्रो !

           मेरे विचार से आज विश्व को हम जो कुछ योग के नाम से बता रहे हैं वह निरोगी एवं आकर्षक काया रखने के सम्बन्ध में है। आहार-विहार और आदतों की जानकारी के बिना यह ज्ञान भी अपूर्ण है। योग पथ पर यात्रा तो निरोगी काया और मन की स्थिरता प्राप्त कर लेने के बाद शुरू होती है।

योग के लिए आदतों में संतुलन जरूरी : Balance in habits, a need for Yoga

मित्रो !

          श्रीमद भगवद गीता (GITA) मात्र एक धार्मिक ग्रन्थ ही नहीं है। इसमें व्यवहारिक जीवन किस तरह जिया जाय से सम्बंधित ज्ञान भी दिया गया है। इस कारण यह (श्रीमद भगवद गीता) केवल हिंदुओं के लिए ही उपयोगी नहीं बल्कि समस्त  मानव जाति के लिए कल्याणकारी है।  इसके अध्याय 6 के श्लोक 17 में भगवान श्री कृष्ण द्वारा  अर्जुन को संबोधित करते हुए कहा गया है -
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा।।

        जो (व्यक्ति) खाने, सोने, आमोद-प्रमोद तथा काम करने की आदतों में नियमित रहता है, वह योगाभ्यास द्वारा समस्त भौतिक क्लेशों को नष्ट कर सकता है।


योग : YOGA


मित्रो !
श्रीमद भगवद गीता अध्याय ६ का श्लोक १६ निम्नप्रकार है :
नात्यश्नतस्तु योगोअस्ति न चैकान्तमनश्रत:। 
न चातिस्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन।।
हे अर्जुन ! जो अधिक खाता है या बहुत कम खाता है, जो अधिक सोता है या जो पर्याप्त नहीं सोता उसके योगी बनने की कोई संभावना नहीं है। 
आगे श्लोक १७ में निम्नप्रकार कहा गया है :
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु। 
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा।।
जो खाने, सोने, आमोद-प्रमोद तथा काम करने की आदतों में नियमित रहता है, वह योगाभ्यास द्वारा समस्त भौतिक क्लेशों को नष्ट कर सकता है।

मित्रता


मित्रो !

       मित्रता में वैयक्तिक हितों का कोई स्थान नहीं होता। मित्रता फूले-फले, इसके लिए आवश्यक होता है कि वैयक्तिक हितों के मुद्दों को दरकिनार कर दिया जाय। मित्र के सामने अपने को श्रेष्ठ साबित करने या अपने निर्णय को मित्र पर थोपने का प्रयास मित्रता के लिये घातक होता है।


ऊपर वाला तू ऊपर ही ठीक


मित्रो !
        ऊपर वाले का ऊपर रहना ही ठीक है। उसके ऊपर रहते नीचे वाले बिना किसी रोक-टोक अपनी फ़रियाद, जब जी चाहा, उससे कर लेते हैं बरना नीचे वालों ने तो उसके विश्राम के समय का सहारा लेकर मंदिरों के कपाट खुलने और बन्द होने का समय तो निश्चित किया ही, साथ ही यह फरमान भी सुना दिया है कि हर कोई दर्शन नहीं कर सकता।

        वह ईश्वर है जो अपनी संतानों में किसी प्रकार का भेद-भाव किये बिना उनकी पुकार, चाहे दिन हो रात, हर समय सुनता है और उनकी मदद भी करता है। किन्तु मनुष्य ने ईश्वर के विश्राम के समय का सहारा लेकर निश्चित समय में दर्शन पर पाबंदी लगा रखी है। कुछ वर्गों या व्यक्तियों के पूजा गृहों में जाने को भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में प्रतिबंधित कर रखा है। यह कहाँ तक उचित है?


यशस्वी वर्तमान


मित्रो !

         हर गुजरा हुआ कल एक दिन आज था, हर आने वाला कल एक दिन आज होगा। यदि हम चाहते हैं कि हमारा भूत और भविष्य दोनों स्वर्णिम हों तब हमें अपने वर्तमान को स्वर्णिम बनाना होगा । हमें यह ध्यान रखना होगा कि वर्तमान हमारे लिए न तो प्रतीक्षा करता है और न ही प्रतीक्षा करने देता है।

मृत्यु क्या है : What is Death?

मित्रो !
       पांच तत्वों से बना पांच कर्मेन्दिर्यों, पांच ज्ञानेन्द्रियों, मन, बुद्धि और अहंकार वाला यह शरीर जीवात्मा के इसमें प्रवेश करने पर क्रियाशील होता है और जब तक जीवात्मा शरीर में रहता है, शरीर में चेतना रहती है। जीवात्मा द्वारा शरीर का त्याग कर देना ही मृत्यु है।

      मृत्यु के उपरान्त शरीर क्रियाविहीन हो जाता है। जीवात्मा के शरीर को छोड़ देने पर जीवात्मा शरीर और इस संसार की अनेक जड़ तथा चेतन वस्तुओं से बनाये गये मोह बन्धनों से मुक्त हो जाती है।