Friday, June 12, 2015

ज्ञान क्या, अज्ञान क्या


मित्रो !
ज्ञान से अभिप्राय किसी वस्तु, विषय या प्रक्रिया के सम्बन्ध में सम्पूर्ण जानकारी से होता है। ज्ञान ही हमें कार्य करने की योग्यता तथा सही और गलत में विभेद करने की क्षमता प्रदान करता है। जिस प्रकार प्रकाश के अभाव में अँधेरा होता है उसी प्रकार ज्ञान के अभाव में अज्ञान होता है। जिस प्रकार अँधेरे को प्रकाश मिटा देता है उसी प्रकार अज्ञान को ज्ञान मिटा देता है।


ज्ञान और प्रकाश


मित्रो !

अज्ञान को ज्ञान उसी तरह नष्ट कर देता है जैसे अन्धकार को प्रकाश नष्ट कर देता है।


Tuesday, June 9, 2015

हमारे दुखों का कारण


मित्रो !
हमारे दुखों का कारण हमारा मिथ्या अहंकार तथा इस भौतिक जगत और कर्म फलों में हमारी संलिप्तता होना है। हम अनेक मामलों में निष्पक्ष भाव से दृष्टा बने रहकर अपने दुखों को कम कर सकते हैं।




सब गोलमाल है


मित्रो !
सत्ता पक्ष के उपलब्धियों के ढ़िंढ़ोरों और उसकी नाकामियों के विपक्ष के नक्कारों के शोर-गुल में भोली-भाली जनता भ्रमित होकर रह गयी है। ऐसे में एक ऐसे निष्पक्ष मूल्यांकनकर्त्ता की जरूरत है जो सत्ता पक्ष की उपलब्धियों और नाकामियों का सही विश्लेषण कर जनता का भ्रम दूर कर सके। 
जनता द्वारा चुनाव के माध्यम से नियुक्त सरकार द्वारा जनहित में किये गए कार्यों का जनता द्वारा मूल्यांकन कराया जाना जनता के अधिकार क्षेत्र के बाहर नहीं माना जा सकता।

पोस्ट पर टिप्पणियों पर मेरी प्रतिक्रिया 
मित्रो !
पहले मैं स्पष्ट कर दूँ कि मैं किसी विशेष राजनैतिक दल का पक्षधर नहीं हूँ। मैंने अपनी पोस्ट में न तो किसी पार्टी की कार्य शैली पर आक्षेप किया है और न ही किसी की कार्य शैली को सराहा है। भ्रम की स्थिति की बात इसलिए मैंने कही है कि आजकल विभिन्न माध्यमों से सत्ता पक्ष उसके द्वारा एक वर्ष के शासन काल में जनहित में किये गए कार्यों / निर्णयों को जनता के सभी वर्गों तक पहुचाने के भगीरथ प्रयास कर रहा है वहीँ पर विपक्ष इन कार्यों को नकारने और अनुपयोगी बताने का कार्य जोर शोर से कर रहा है। दोनों के अपने-अपने तर्क हैं। जो दृष्टिकोण अपनाये जा रहे हैं उनसे दोनों ही अपनी-अपनी जगह ठीक लगते हैं। 
आगे कुछ कहने से पूर्व मैं अपने दृष्टिकोण के विषय में एक छोटा सा वृतांत देना चाहूँगा। वृतांत सुनाने के पीछे मेरा उद्देश्य मेरे अपने द्वारा किसी विषय पर मेरी सोच क्या है से परिचित कराने मात्र का है। तत्समय मैं उत्तर प्रदेश के व्यापार कर विभाग के अपर कमिशनर (विधि), व्यापार कर, उ. प्र. [Additional Commissioner (Law) Trade Tax, U.P. ] के पद पर तैनात था। उस समय शासन में व्यापार कर विभाग "संस्थागत वित्त एवं व्यापार कर" विभाग के अधीन आता था। किन्तु कुछ समय बाद इससे संस्थागत वित्त अलग हो गया और व्यापार कर, प्रवेश कर, मनोरंजन कर और अचल संपत्ति का पंजीयन का कार्य रह गया। उस समय रूलिंग पार्टी वह सत्ता में आ गयी जिसकी विरोधी पार्टी ने "बिक्री कर" का नाम बदल कर "व्यापार कर" कर दिया था। उस समय शासन द्वारा कमिशनर व्यापार कर से दो विन्दुओं पर सुझाव मांगे गए :
1. क्या व्यापार कर विभाग का नाम बदल कर "बिक्रीकर" या "वाणिज्यिक कर" रखना उचित होगा?
2. क्या शासन स्तर पर विभाग का नाम "संस्थागत वित्त एवं व्यापार कर" के स्थान पर "कर एवं पंजीयन" किया जाना उचित होगा?
कमिशनर व्यापार कर ने इस पर मेरी राय मांगी। इस पर मैंने सुझाव दिया कि ५-६ वर्ष पूर्व व्यापार कर विभाग का नाम "बिक्री कर" रहा था। उस समय नाम बदलने पर बहुत बड़े स्तर पर कार्यालय बोर्ड, स्टेशनरी, रबर की मोहरें एवं अभिलेखों में नाम बदलने में राजस्व व्यय करना पड़ा, नाम के पॉपुलर होने में भी कई वर्ष लग गए। अब जब नाम पॉपुलर हो चुका है पुनः बदलने में वही कठिनाइयाँ होंगी और जनता के पैसे का अपव्यय भी होगा। यह स्वस्थ परम्परा नहीं होगी। दूसरे प्रश्न के सम्बन्ध में मैंने प्रस्तावित "कर एवं पंजीयन" के स्थान पर "कर एवं निबंधन" नाम प्रस्तावित किया क्योंकि "पंजीयन" शब्द का प्रयोग व्यापार कर अधिनियम में अधिक प्रचलित था तथा अचल सम्पत्ति की रजिस्ट्री वाले विभाग में "रजिस्ट्रेशन, रजिस्ट्रार, आदि" शब्द अधिक प्रचलित थे। प्रस्ताव लॉजिकल था और सभी को अच्छा लगा। अन्तः राज्य सरकार ने भी इसे यथावत स्वीकार कर लिया। 
अब मैं मेरे मित्रो द्वारा पोस्ट पर की गयी टिप्पणियों पर आता हूँ। कुछ मित्रो ने निष्पक्ष समीक्षा की व्यवस्था होने से सहमति व्यक्ति की है किन्तु ऐसी व्यवस्था हो पाना संभव नहीं पाया है, कुछ मित्रो ने प्रजातान्त्रिक व्यवस्था में उपलब्धियों का सत्ता पक्ष द्वारा किया जाना बखान सत्ता पक्ष का अधिकार माना है, कुछ मित्रो ने खुले दिल से वर्तमान में प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी के निर्णयों और उनके नेतृत्व में कार्य कर रही सरकार के कार्यों की भूरि-भूरि प्रसंशा की है, किसी मित्र ने शंका जाहिर की है कि कुछ लोग घुटाले करने वालों को छूट देने वाली सरकार ही चाहते हैं। मेरे मित्र श्री दिग्विजय नारायण सिंह जी ने सुझाव दिया है कि कार्य की निष्पक्ष समीक्षा तो की जानी चाहिए किन्तु चार साल बाद अर्थात नयी सरकार के सत्ता में काबिज होने के चार साल बाद समीक्षा की जानी चाहिए।
मेरे विचार से यह कहना कि निष्पक्ष विश्लेषण की व्यवस्था किया जाना संभव नहीं है, उचित नहीं है। कोई ऐसी स्वतंत्र संवैधानिक संस्था बनाई जा सकती है जिसको सत्ता पक्ष अपनी उपलब्धियों के विवरण दे। संस्था इनका परीक्षण कर पक्ष-विपक्ष में अपनी राय दे। पक्ष और विपक्ष के एक-एक नामित सदस्य वास्तविकता तक पहुँचने में संस्था की मदद करें। 
जो कुछ आम जनता को विभिन्न संचार माध्यमों या रैलियों में भाषण के माध्यम से बताया जाता है उसको समझने के लिए आम जनता सोसिओ-इकोनोमिक कोम्प्लेक्सिटीज (Socio-economic complexities) की जानकारी नहीं रखती है। दूसरे रैलियों में भले ही राजनेताओं का वक्त वर्बाद न होता हो किन्तु आम जनता का समय और धन दोनों बर्बाद होते हैं। इस बात पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है कि रैलियों में राजनैतिक दल के सपोर्टर्स और गरीब व्यक्ति ही आते हैं। 
यदा-कदा चुने हुए प्रतिनिधियों के जनोपयोगी कार्य न करने पर जनता को उन्हें बापस बुलाने (Recall) का मुद्दा उठता रहा है। क्या यह इस बात का संकेत नहीं है कि जनता द्वारा जन प्रतिनिधियों के कार्य की उचित समीक्षा की जानी चाहिए। 
सरकारों का कार्य केवल उनकी पार्टी के मैनिफेस्टो में अंकित कार्यों का पूरा करने तक ही सीमित नहीं होता। उनको पूर्व में लायी गयी योजनाओं जो जनहित में होतीं हैं का संरक्षण करना भी होता है। नए रोज़गार के अवसरों के सृजन के तरीके ढूंढने के साथ - साथ पुराने रोजगार के अवसरों के बनाये रखने का भी होता है। जनता के जीवन को बेहतर बनाने के लिए सामयिक निर्णय भी लेने होते हैं।


आनन्द भी ऊर्जा भी


मित्रो !

आइये हम सब अपने व्यस्त जीवन से कुछ क्षण चुराकर संगीत का आनन्द लें और तनावमुक्त होकर ऊर्जावान बने।


संगीत से नाता जोड़ें


मित्रो !
संगीत ईश्वर की अलौकिक देन है। गायन और वादन, दोनों प्रकार का संगीत संगीतकार और श्रोता दोनों पर अपना जादू करता है। इसके प्रभाव में आकर व्यक्ति एक अलौकिक दुनिया में सैर करता है जहाँ न कोई बन्धन होते हैं, न कोई चिंतायें और न किसी प्रकार का तनाव। उस दुनिया में केवल आनन्द ही आनन्द है। हमें चाहिए कि हम संगीत से अपना नाता जोड़ें।

प्रकृति के भी रोम-रोम में संगीत समाया हुआ है। हमें इस संगीत का भी आनन्द लेना चाहिए। संगीत हमारे दिल और दिमाग, दोनों पर प्रभाव डालता है। संगीत से थकान भी मिटती है। संगीत हमें गहरी नींद के आगोश में ले जा सकता है और गहरी नींद से जगा भी सकता है। वर्तमान में तनाव भरे जीवन में संगीत ही हमें तनाव मुक्त कर सकता है।


नैतिक मूल्यों का पोषक: Patron of Our Moral Values

मित्रो !

हमारा अंतःकरण (conscience) हमारे नैतिक मूल्यों का पोषक होता है। जिस व्यक्ति का अपना ज़मीर (conscience) क्रियाशील नहीं होता अथवा जो व्यक्ति अपना ज़मीर बेच देता है, उसके अन्दर नैतिक मूल्य नहीं पलते। नैतिक और अनैतिक में भेद के बिना ऐसे व्यक्ति का आचरण अनियंत्रित हो जाता है।  




Wednesday, June 3, 2015

क्षमादान से लाभ क्या है


मित्रो !

जब किसी व्यक्ति के किसी कृत्य से किसी दूसरे व्यक्ति को कष्ट पहुँचता है तब कर्म फल के अनुसार गलती करने वाला दण्ड का भागी बनता है और वह व्यक्ति जिसको कष्ट पहुँचा है कष्ट का प्रतिफल पाने का हक़दार बनता है। यदि कष्ट पाने वाला व्यक्ति कष्ट देने वाले को क्षमा न करे तब उसके अन्दर क्रोध और बदले की भावनायें जन्म ले लेतीं हैं जो उसके लिए विनाशकारी होतीं हैं। क्षमा दान से आनन्द की अनुभूति होती है। इन्हीं भावों से प्रेरित होकर मैंने प्रस्तुत विचार निम्नप्रकार व्यक्त किया है। 
क्षमा दान मिल जाने से गलती करने वाले को अपने किये से छुटकारा नहीं मिल जाता, कर्मफल के रूप में उसे इसके प्रतिकूल परिणाम भोगने ही होते हैं किन्तु दूसरे की गलतियों को क्षमा कर देने वाला क्रोध और बदले की विनाशकारी आग से बच जाता है। वह क्षमादान देकर अपने लिए सुख कमा लेता है और उसको हुई क्षति के प्रतिफल का हकदार भी बन जाता है।


यहॉं हर कोई स्वार्थी है


मित्रो !

दावा कोई कुछ भी करे पर सच्चाई यही है कि यहॉं हर इंसान केवल अपने लिए ही जी रहा है, जिसको दूसरों की मदद करने में सुख मिलता है वह दूसरों की मदद करके अपने लिए सुख जुटा रहा है, जिसको दूसरों को दुःख देकर ख़ुशी मिलती है वह ऐसा करके अपने लिए क्षणिक सुख कमा रहा है। सामाजिक रिश्तों के मामलों में भी यही लागू होता है।
दोनों प्रकार के इंसानों में से प्रथम प्रकार का इंसान, जो दूसरों की मदद करके अपने लिए सुख कमा रहा है, दूसरे प्रकार के इंसान, जो दूसरों को दुःख देकर अपने लिए क्षणिक सुख कमा रहा है, से बेहतर है क्योंकि वह जीवन में अच्छा कर्म का आनंद तो ले ही रहा है साथ ही अच्छे कर्म के अच्छे फल के रूप में मिलने वाला सुख या तो इसी जीवन में अथवा मरणोपरान्त भोगेगा, वहीं दूसरा इंसान जीवन में क्षणिक सुख का आनंद तो ले रहा है किन्तु बुरे कर्म के बुरे फल के रूप में मिलने वाला दुःख या तो इसी जीवन में अथवा मरणोपरान्त भोगेगा।


बढ़ते अपराधों पर अंकुश

मित्रो !
मेरा मानना है कि -
हमारी पुलिस के पास अपने क्षेत्र में होने वाले अपराधों और अपराधी प्रकृति के लोगों के सम्बन्ध में अभिसूचना एकत्रण के लिए अपना ख़ुफ़िया तंत्र होता है और अगर नहीं होता है तो ऐसा तंत्र होना चाहिए। यदि पुलिस को अपराध होने की जानकारी मिलती है और पुलिस पाती है कि मामले में प्रथम सूचना रिपोर्ट किसी पक्ष द्वारा दर्ज नहीं कराई गयी है तब उसे स्वतः मामले में तत्परता से 24 घंटे के अंदर प्राथमिक जाँच की कार्यवाही प्रारम्भ कर, प्राथमिक जाँच में प्रकाश में आये तथ्यों के आधार पर मजिस्ट्रेट से एफ. आई. आर. दर्ज करने के आदेश प्राप्त कर जाँच शुरू कर देनी चाहिए। इससे पुलिस के विरुद्ध एफ. आई. आर. दर्ज न करने का आरोप भी नहीं लगेगा और अपराधों पर नियंत्रण पाने में सफलता भी मिलेगी।


यदि अपराध में घायल व्यक्ति के इलाज को प्रारम्भ करने से पूर्व पीड़ित पक्ष द्वारा पुलिस में केस रिपोर्ट किये जाने की व्यवस्था में परिवर्तन कर केवल चिकित्सक द्वारा पुलिस को सूचित कर तुरंत इलाज प्रारम्भ करने की वाध्यता को बनाया जा सकता है तब पुलिस द्वारा अपराध की जांच के सम्बन्ध में ऐसी व्यवस्था क्यों नहीं बनाई जा सकती? इसके लिए यदि आवश्यक हो तब सम्बंधित कानूनों में भी परिवर्तन किया जाना चाहिए। आवश्यकतानुसार पुलिस जनशक्ति बढ़ाई जानी चाहिये और गुप्त सेवा व्यय की धनराशि (secret service fund) बढ़ाई जानी चाहिये। 
इन्हीं विचारों से प्रेरित होकर मैंने यह विचार व्यक्त किया है।

कुछ अपराधों के मामले में पुलिस प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) की अपेक्षा में कार्यवाही शुरू नहीं करती। मेरे विचार से अपराधों को रोकने के लिए पुलिस को यह अधिकार दिया जाना चाहिए कि वह एफ. आई. आर. की प्रतीक्षा किये बिना उसको मिली सूचना के आधार पर प्राथमिक रिपोर्ट तैयार कर मजिस्ट्रेट से आज्ञा लेकर एफ. आई. आर. दर्ज कर जांच प्रारम्भ करे।


इच्छा का महत्व


मित्रो !

किसी कार्य को संपादित करने के लिए, कार्य के अनुसार अपेक्षित साधनों, उपयुक्त शक्ति, अपेक्षित श्रम और कार्य सम्पादित करने की इच्छा का होना आवश्यक होता है। यदि अपेक्षित साधनों में ही उपयुक्त शक्ति और अपेक्षित श्रम को शामिल मान लिया जाय तब हम कह सकते हैं कि किसी कार्य को सम्पादित करने के लिए संसाधनों और कार्य सम्पादन की इच्छा की आवश्यकता होती है। 
जिस व्यक्ति द्वारा कार्य का सम्पादित किया जाना अपेक्षित होता है उसके लिए, कार्य की प्रकृति को देखते हुए, संसाधनों के तीन स्त्रोत हो सकते हैं। सभी संसाधन उसके शरीर से ही प्राप्त हो जांय अथवा सभी संसाधन उसके शरीर के बाहर से प्राप्त हों अथवा कुछ संसाधन उसके शरीर से प्राप्त हों और शेष संसाधन उसके शरीर के बाहर से। संसाधन किसी भी स्त्रोत से प्राप्त हों, कार्य करने की इच्छा कार्य करने वाले की अपनी होती है। जहां कार्य करने वाला किसी अन्य व्यक्ति के निर्देश पर करता है वहाँ पर भी कार्य करने की इच्छा उसकी अपनी होती है। 
कार्य करने की इच्छा के अभाव में न तो सक्रियता आती है और न ही कार्य प्रारम्भ किया जा सकता है। कार्य करने की इच्छा ही कार्य संपादन के दौरान निरंतरता बनाये रखती है। संसाधनों के अभाव में कार्य करने की इच्छा एक कल्पना, स्वप्न, सोच या योजना ही कही जा सकती है, कार्य का प्रारम्भ होना नहीं माना जा सकता। 
इन्ही विचारों ने मुझे यह कहने के लिए प्रेरित किया है कि :
किसी कार्य के सम्पादन के लिए साधन, शक्ति, श्रम और कार्य करने की इच्छा की आवश्यकता होती है। इनमें कार्य करने की इच्छा का विशिष्ट स्थान होता है। इच्छा के अभाव में किसी कार्य का प्रारम्भ किया जाना भी संभव नहीं है। इच्छा के अभाव में मुंह में उंडेला गया पानी भी हलक के नीचे नहीं उतर सकता।


यह कैसी शादी


मित्रो !

गरीब परिवारों में जन्में लड़कों के माता-पिता अनेक आर्थिक कठिनाइयों का सामना कर, यहां तक कि अपना घर और अन्य संपत्ति गिरबी रखकर, अपने बड़े लडके को इस आशा के साथ पढ़ाते हैं कि वह नौकरी पाकर उनका सहारा बनने के साथ-साथ अपने बहिन -भाइयों को आगे ले जायेगा, घर की माली हालत सुधरेगी। लेकिन अगर बड़ा बच्चा नौकरी पाकर विवाह के उपरान्त परिवार से नाता तोड़ ले तब हम समझ सकते हैं कि उस परिवार की स्थिति क्या होगी? 
शादी में दो परिवारों के बीच नए रिश्तों का जन्म होता है। शादी का मतलब है एक होना और दो का एक होकर संतति को आगे बढ़ाना। किन्तु यदि शादी से परिवार में विखराव आ जाय, किसी एक परिवार की प्रगति बाधित हो जाय तब ऐसी शादी से बचना ही उचित होता है।
कुछ मामलों में गाँव के किसी गरीब परिवार के लड़के की किसी अच्छे पद पर नौकरी लग जाने पर कोई धनाढ्य व्यक्ति अपनी पुत्री का विवाह उस लड़के से कर देता है। कुछ समय बाद लड़की के माँ - बाप अपने गुप्त एजेंडे के तहत विषम परिस्थिति उत्पन्न कर लड़के को अपने परिवार से अलग होने के लिए विवश कर देते है। ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक हैं कि सृजन में विध्वंश कैसा और गरीबों की प्रगति में बाधा क्यों? 
मेरे विचार से अनेक सम्बन्धों को बिगाड़ कर एक एक नया घर बसाने की बात उचित नहीं है।


मा फलेषु कदाचन


मित्रो !

अच्छे परिणाम की अपेक्षा ही ख़राब परिणाम मिलने पर दुःख का कारण बनती है। ख़राब परिणाम के कारण होने वाले दुःख से छुटकारा पाने का एक मात्र उपाय है कि हम उद्देश्य को ध्यान में रखकर सकारात्मक दृष्टिकोण से कोई भी कार्य यह सोच कर करें कि परिणाम अनुकूल हो भी सकता है और नहीं भी। ऐसा होने पर प्रतिकूल परिणाम आने पर भी हमें दुःख नहीं होगा। 
परिणाम को ईश्वर पर छोड़ देने से यह अभिप्राय कदापि नहीं है कि ईश्वर कर्म के अनुसार फल नहीं देता। हमें यह सोचना चाहिए कि हम परीक्षार्थी हैं और ईश्वर परीक्षक है। परीक्षक ही जानता है कि परीक्षार्थी के प्रयास किस कोटि के हैं।


शिष्टाचार : पहले आप, पहले आप


मित्रो !

'पहले आप, पहले आप' की संस्कृति अच्छी है वशर्ते औपचारिकता निभाने में समय न गँवा दिया जाय। यह संस्कृति आधी रोटी बाँटकर खाने वाली संस्कृति है। जहाँ यह संस्कृति पलती है वहाँ सौहार्द होता है। इसके तले प्यार और मैत्री फूलते - फलते हैं।


मंहगाई से बेखबर लोग

मित्रो !
अगर आप देश में रह रहे विभिन्न लोगों के आर्थिक स्तर के विषय में सोचें तब आप पायेंगे कि देश की जनसँख्या का एक बड़ा भाग ऐसा है जिस पर मंहगाई की दर घटने - बढ़ने का कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता। यह वर्ग छोटे किसानों, खेतिहर मजदूरों, अकुशल श्रमिकों, शहरों में घरों में झाड़ू -पोछा या वर्तन साफ़ कर गुजारा करने वालों, निर्माणाधीन भवनों, सडकों, पुलों आदि पर कार्य करने वाले मजदूरों, आदि का ऐसा वर्ग है जो दो वक्त की रोटी के लिए संघर्ष कर रहा है। इसी वर्ग में गाँव से रोजी-रोटी की तलाश में शहर में आये आपकी रक्षा में तैनात चौकीदार हैं, अपनी जान जोखिम में डाल कर खतरों से भरे काम करने वाले मजदूर हैं। उन्हें न आपके डीजल या पेट्रोल की कीमतों में उतार-चढ़ाव से मतलब है और न ही उन्हें फल, सब्जी, दालें और मसालों से मतलब है। दाल और सब्जी की बात उनके लिए दूर की बात है, उन्हें सूखी रोटी और नमक नसीब हो जाय यही बहुत है। हम ऊंचे लोग शौक में आधे वदन पर कपडे पहनते हैं और वे आर्थिक तंगी के चलते आधे वदन पर कपडे पहनते हैं। हम एक साल में कई बार कपडे बदलते हैं और वे कई साल में एक बार कपडे बदलते हैं।

यह गाँव के छोटे किसान, खेतिहर व अन्य मजदूर तथा अन्य तबकों के गरीब लोग ही हैं जो अपने सपूतों को देश की सीमाओं की रक्षा के लिए अगली पंक्ति में लड़ने के लिए देते हैं, अर्धसैनिक बल देते हैं, चोरो, लुटेरों और बदमाशों से लड़ने और हमारी रक्षा और सुरक्षा के लिए पुलिस बल देते हैं। इनमें से अनेक लोगों की बापसी कभी नहीं होती, कुछ बापस आता है तो वह होता है उनके कपडे और देश की खातिर मर जाने की खबर। अपने बेटों को भेजने के समय वे जानते हैं कि उनके बेटों के साथ क्या हो सकता है? पर उनकी लाचारी उन्हें ऐसा करने के लिए मजबूर कर देती है। बेटे भी बेमिसाल हैं, उनके सैनिक, अर्धसैनिक, पुलिस में आने के पीछे कारण कुछ भी रहे हों, वे कभी दुश्मन को पीठ नहीं दिखाते, आखिरी सांस तक लड़ते हैं और जब मरते हैं तब सीने पर गोली खाकर मरते हैं। मैं यह नहीं कहता कि उच्च वर्ग के लोग सैनिक बलों, अर्धसैनिक बलों या पुलिस में नहीं हैं। उच्च वर्ग के लोग भी हैं किन्तु उनमें से अगली पंक्ति में लड़ने वालों की संख्या नगण्य है।
यह ध्यान देने योग्य है कि यह वर्ग सरकार के गठन में महत्वपूर्ण भागीदारी रखता है किन्तु उसके द्वारा चुने गए लोग ही उनकी समस्यायों से बेखबर रहते हैं। हमें अपना शक्ति प्रदर्शन में, चाहे शक्ति प्रदर्शन गाँव में करना हो या शहर में, हम उनका ही उपयोग करते हैं। हम अपने धमाकेदार भाषणों और झूठे -सच्चे आस्वासनों से उनका वोट छल लेते हैं। किन्तु चुनाव समाप्त होते ही हम उनको और उनकी समस्यायों को भूल जाते हैं।
हम मंहगाई को कम करने की जब बात करते हैं तब फल, सब्जी, दालों की कीमतें कम करने की बात करते हैं। हम उनके उत्पाद को सस्ता करने की बात करते हैं किन्तु उनके द्वारा फल, सब्जी, दालें, आदि बेचकर अपने उपभोग की अन्य खरीदी जाने वाली चीजों यथा कृषि औजार, तन ढकने के लिए कपड़ा, आदि सस्ता करने पर विचार नहीं करते।
वस्तु स्थिति यह है कि आर्थिक विषमता को लेकर हमारा देश दो भागों में विभाजन की ओर बढ़ रहा है। यह हमारे देश की अखंडता के लिए खतरा है। इसको रोके जाने के लिए तुरंत प्रभावी कदम उठाये जाने की आवश्यकता है। आवश्यकता इस बात की है कि हम इस वर्ग की समस्याओं का अध्ययन कर उनके हित की व्यवहारिक योजनाएं बनाएं। उनका यदि किसी स्तर पर आर्थिक दृष्टी से शोषण हो रहा है तब उसे रोकें। उनकी सेवाओं का उचित मुआबजा उन्हें मिले। उनके संसाधनों और हितों की रक्षा करें। उन्हें बढ़ती जनसँख्या के खतरों के प्रति जागरूक करें।
मेरे इन्हीं विचारों ने निम्नप्रकार सोचने के लिए प्रेरित किया है : 
देश में एक बड़ी संख्या उन लोगों की भी है जिन्हें मंहगाई के घटने - बढ़ने से कोई सरोकार नहीं है। कारण यह कि इन लोगों को न तो डीजल व पेट्रोल चाहिए और न ही फल, सब्जी, मसाले और दालें। ये वे लोग हैं जिन्होंने अपनी जिंदगी से समझौता कर लिया है और यह मान लिया है कि यह सब चीजें बड़े लोगों के लिए हैं।


क्षमा याचना : बदलता स्वरुप कितना उचित


मित्रो !

कभी न कभी गलतियां हम सभी से होतीं हैं। कुछ गलतियाँ ऐसी होतीं हैं जिनका परिणाम गलती करने वाले के लिए ही हानिकारक होता है तथा कुछ गलतियों के फलस्वरूप अन्य व्यक्ति को हानि होती है अथवा चोट या दुःख पहुँचता है। दूसरे प्रकार की गलती के लिए यदि हम दूसरे व्यक्ति के सामने शर्मिंदा होकर अपनी गलती को स्वीकार न करें तब हम अपने दिल पर एक बोझ सा महसूस करते हैं और ऐसे व्यक्ति से कटे-कटे से रहते हैं। लेकिन जब हम उस व्यक्ति जिसको हानि हुयी है अथवा चोट या दुःख पहुंचा है के समक्ष अपनी गलती पर शर्मिंदगी महसूस करते हुए उस व्यक्ति से अपनी गलती को माफ़ किये जाने का अनुरोध कर लेते हैं तब हल्कापन महसूस करते हैं। ऐसा करने पर हमारे अन्दर अपराध बोध की भावना समाप्त हो जाती है।
वर्तमान में अनेक लोग इसका दुरुपयोग भी कर रहे हैं। ऐसे लोग जान-बूझकर ऐसे वक्तव्य देते हैं जिनसे दूसरे व्यक्तियों का अपमान होता है और उनको दुःख पहुँचता है। जान-बूझकर ऐसा वक्तव्य देने वाले कोई शर्मिंदगी महसूस नहीं करते। जब उनके साथी उन्हें उनकी गलती का अहसास दिलाते हैं तब वे बड़ी ही आसानी से कह देते हैं "मेरे शब्दों से यदि किसी की भावनाएं आहत हुईं हों तब वे माफी माँगते हैं " . मेरे विचार से इसे क्षमा याचना विल्कुल नहीं कहा जा सकता है। वास्तव में जहाँ कोई किसी को जान-बूझकर आहत करता है वहाँ आहत करने वाले के अंदर गलती करने का अहसास ही नहीं होता। ऐसी स्थिति में गलती पर शर्मिंदा होने का प्रश्न ही नहीं उठता। यह आचरण न तो माफी मांगने के काबिल होता है और न ही माफी दिए जाने के काबिल। 
मेरे इन्हीं विचारों ने मुझे आपके सामने निम्नलिखित विचार प्रस्तुत किये जाने के लिए प्रेरित किया है :
अपनी गलतियों पर क्षमा माँगना और और दूसरे की गलतियों के लिए उसे क्षमा कर देना मनुष्य के चरित्र के दैवीय गुण है। क्षमा याचना करने वाला व्यक्ति अपने गलत कृत्य पर शर्मिंदगी अनुभव करता है। क्षमा याचना दिल से की जाती है, क्षमा याचना महज एक औपचारिकता नहीं है। क्षमा याचना मनुष्य को अपराध बोध से मुक्ति दिलाती है। दबाव में अथवा अनमने मन या ढंग से माँगी गयी क्षमा, क्षमा याचना नहीं कही जा सकती।


मृदु वाणी : बदलती मानसिकता : Sweet Voice Changing Attitude


मित्रो !

मेरे विचार से भारत वर्ष में प्रचलित विभिन्न सभ्यताओं में मृदु वाणी को विशेष महत्व दिया गया है। वैदिक सभ्यता में तो यहां तक कहा गया है :
सत्यं ब्रूयात प्रियं ब्रूयात न ब्रूयात सत्यमप्रियम। 
प्रियं च नान्रितं ब्रूयात ह्येषां धर्मः सनातनः।।
सत्य व प्रिय बोलना चाहिये। अप्रिय सत्य और झूठा प्रिय वचन नही बोलना चाहिये। यही सनातन धर्म है।
आज वस्तुस्थिति बदली हुयी है। वर्तमान में हमारे बीच से अनेक लोग बिना विचार किये कटु बचन बोलते हैं। यही नहीं कुछ लोग तो दूसरे को नीचे दिखाने के लिए सोच विचार कर कटु वचन बोलते हैं। 
बचपन में हमें पढ़ाया गया था कि कमान से निकला तीर और मुंह से निकले शब्द बापस नहीं आते अतः जो भी हम बोलें, सोच समझ कर बोलें । किन्तु आज जब कोई हमारे द्वारा बोले गए शब्दों के कटु बचन होने का हमें बोध कराता हैं तब हम बड़ी ही आसानी से यह कहकर बच निकलते हैं कि हमारा किसी का दिल दुखाने का उद्देश्य नहीं रहा था, यदि किसी को बुरा लगा हो तो मैं अपने शब्द बापस लेता हूँ।
अब कटु वचन, मृदु वचन, आदि के झमेले में पड़ने की आवश्यकता ही नहीं रह गयी है। कटु वचन पर श्रोता स्वयं आपत्ति करता है। उसके बाद हम रटे -रटाये शब्द "यदि किसी को ठेस पहुंची हो तो हम अपने शब्द बापस लेते हैं" कहकर कटु शब्द बापस ले लिया गया मान लेते हैं। यह हम कहाँ आ गए हैं, जहाँ हम दावा तो पढ़े-लिखे होने का करते हैं किन्तु आचरण वे-पढ़े-लिखों (अनपढ़ों) जैसा करते है?


दोहरा चरित्र Dual Character

मित्रो !
दो बच्चों के माँ बाप होकर हम सभी अपने दोनों बच्चों से अपेक्षा करते हैं कि हमारे दोनों बच्चे मिल-जुल कर रहे और आवश्यकता पड़ने पर एक-दूसरे की मदद करें किन्तु विडम्बना यह है कि हम में से अनेक लोग अपने भाई से मिल-जुल कर नहीं रहना चाहते। क्या ऐसा करके हम अपने माँ-बाप का दिल नहीं दुखाते हैं? हम दोहरा चरित्र क्यों जीते हैं?
Dual Character


भृष्टाचार


मित्रो !

मुझे नहीं मालूम कि भृष्टाचार के उन्मूलन के लिए कटिबद्ध सरकारों ने इस तरह की कोई सूची बनबाई है कि नहीं कि भृष्टाचार के लिए क्या-क्या तरीके अपनाये जाते हैं। मेरा विचार है कि अगर फसल से खर-पतवार निकालना है तब पहली आवश्यकता खर - पतवार की पहचान करने की ही होती है। यहां पर जिस वृतांत का उल्लेख करने जा रहा हूँ वह भृष्टाचार के कुछ स्वरूपों से ही सम्बंधित है।
उन दिनों मैं अपनी सेवा के लगभग तीन वर्ष पूरे कर चुका था और एक जनपद के मुख्यालय पर प्रभारी बिक्री कर अधिकारी के पद पर कार्यरत था। उत्तर प्रदेश से प्रोफेशन टैक्स समाप्त किया जा चूका था तथा लंबित पुराने मामलों को निबटाने के लिए विभिन्न मंडलों में एक-एक असिस्टेंट प्रोफेशन टैक्स अफसर तैनात थे। मेरे मंडल में भी लगभग ५८ वर्ष उम्र के एक अधिकारी तैनात थे। वे पूर्व में राज्य के सचिवालय में कार्य कर चुके थे। अनुभवी अधिकारी थे। मंडल में मिलाकर कुल 7 अधिकारी कार्यरत थे। सभी ने यह निर्णय किया था लंच आवर्स में सभी अधिकारी चाय मेरे कार्यालय कक्ष में ही लेंगे। चाय पर कुछ इधर-उधर की चर्चा होना भी स्वाभाविक थी। 
एक दिन असिस्टेंट प्रोफेशन टैक्स अफसर ने किसी सन्दर्भ में इस पर चर्चा शुरू कर दी कि लोग राजकीय कोष को किस-किस तरह भृष्टाचार के द्वारा नुकसान पहुंचाते हैं। उन्होंने इस सम्बन्ध में तीन तरीकों का उल्लेख किया। उनका कहना था एक तरह के भृष्टाचारी पब्लिक से रिश्वत लेकर सरकार को विभिन्न देयों की वास्तविक रूप में देय धनराशियों से कम धनराशियां राजकीय कोष में जमा कराते हैं। दूसरे तरह के भृष्टाचारी सरकारी सम्पत्तियों की वास्तविक मूल्य से कम मूल्य पर बिक्री करके क्रेता से रिश्वत के रूप में धनराशि ले लेते हैं। तीसरे तरीके के भृष्टाचारी सरकार द्वारा बनाई जाने वाली विकास की योजनाओं के लिए स्वीकृत धनराशि में से कम धनराशि खर्च करके शेष धनराशि को साझा कर लेते हैं। इसकी शुरुआत योजना का बजट इस्टीमेट बनाने से हो जाती है। बजट वास्तविक खर्च होने वाली धनराशि से अधिक का बनाकर स्वीकृत करा लिया जाता है। योजनाओं के क्रियान्वन में लगने वाला माल कम दर का घटिया किस्म का होता है किन्तु उसका बिल अच्छी क्वालिटी का माल दिखाकर अधिक मूल्य का माल दिखा दिया जाता है। बिक्रेता से माल खरीद का फर्जी बिल प्राप्त कर लिया जाता है। विभिन्न संस्थानों में उपयोग में आने वाली वस्तुओं की खरीद के लिए प्राप्त धनराशि से कोई खरीद न करके खरीद के फर्जी बिल प्राप्त कर लिए जाते हैं। अपने परिचित ठेकेदारों को ठेके दिलवा दिए जाते हैं और उनको मिलने वाली धनराशि से अपना हिस्सा ले लिया जाता है। इस तरह के असिस्टेंट प्रोफेशन टैक्स अधिकारी ने अनेक अन्य उदाहरण दिए। उनका कहना था कि तीसरे प्रकार से किया जाने वाला भृष्टाचार बहुत बड़े स्तर पर होता है और इसका नेट वर्क बहुत विस्तृत होता है। इसके लिए खर्च करने का तरीका ढूढ़ा जाता है। 
मैं समझता हूँ कि असिस्टेंट प्रोफेशन टैक्स अधिकारी द्वारा उस समय जो तरीके भृष्टाचार के बताये गए थे वे आजकल अपनाये जाने वाले तरीकों की संख्या की तुलना में बहुत कम हैं। वर्तमान में सरकारी नौकरी दिलवाने के नाम पर भृष्टाचार का बहुत बड़ा उद्योग चल रहा है। इससे अयोग्य लोग भी सरकारी नौकरियों में आ जाते हैं और वे अपने द्वारा नौकरी पाने के लिए दी गयी रकम की वसूली भृष्टाचार द्वारा शुरू कर देते हैं। 
एक अन्य प्रकार का भृष्टाचार ऐसा है जिसमें जनता अपने कोई कार्य करवाने के लिए, कोई दस्ताबेज पाने के लिए या अन्य कोई सुविधा पाने के लिए, जिसके लिये वे कानूनी रूप से पाने के हकदार होते हैं, सरकारी और अर्ध-सरकारी कार्यालयों में जाते है किन्तु उनका ऐसा कार्य बिना सुविधा शुल्क लिए नहीं किया जाता। इस प्रकार के भृष्टाचार का विस्तार बहुत अधिक है। यह भृष्टाचार सिस्टम में बुरी तरह समाया हुआ है। कुछ मामलों में जनता को यह भी ज्ञात नहीं रह गया है कि यह भृष्टाचार है, जनता यह समझती है कि यह शुल्क है और कानूनन देय है। भृष्टाचार के नाम पर भी जनता से कुछ अवांछनीय तत्वों द्वारा बसूली की जाती है। 
मेरा विचार है कि भृष्टाचार रोकने की कार्यवाही में पहला कदम भृष्टाचार को जानने का ही हो सकता है। उसके उपरान्त विभिन्न प्रकार के भृष्टाचार को कैसे रोका जा सकता है, इस पर अध्ययन कर रिपोर्ट तैयार की जानी चाहिए। विभिन्न प्रकार के भृष्टाचार के पीछे कारणों का भी अध्ययन किया जाना चाहिए। भृष्टाचार समुद्र की लहरें गिनने पर भी पनप सकता है। एक स्त्रोत बंद करने पर नया स्त्रोत भी खुल सकता है। इस कार्य के लिए दो स्थायी सेल अलग-अलग बनाये जाने चाहिए। यह सेल समस्या का लगातार अध्ययन करते रहे और फीडबैक देते रहें। एक महत्वपूर्ण कार्य जनता को इस सम्बन्ध में जागरूक करने और शिक्षित करने का भी किया जाना चाहिए। 
भृष्टाचार रोकने की दिशा में कार्यवाही पर मेरे द्वारा टिप्पणी किया जाना मुनासिब नहीं है। सच पूछिए तो इस कार्य के लिए मेरे पास डेटा भी नहीं है। इसका निर्णय मैं आप और जनता पर छोड़ता हूँ।


मोक्ष क्या है


मित्रो !

हमारे शरीर में आत्मा जीवात्मा के रूप में रहता है। हम अपने मन, बुद्धि, इन्द्रियों द्वारा जो भी शारीरिक, मानसिक या वाचिक (वाणी) कर्म करते हैं उसका कर्त्ता जीवात्मा होता है। हमारे द्वारा किये जाने वाले कर्म दो प्रकार के होते हैं, सकाम कर्म और निष्काम कर्म। कोई भी कर्म जो फल की इच्छा से किया जाता है, सकाम कर्म की श्रेणी में आता है, जो कर्म बिना फल की इच्छा के किया जाता है वह निष्काम कर्म की श्रेणी में आता है।
प्रत्येक सकाम कर्म का फल अवश्य मिलता है, यह हमारी इच्छा पर नहीं निर्भर करता कि हम किसी सकाम कर्म का फल न लें। हमारे शरीर में कर्मों के फलों का भोग करने वाला हमारे शरीर का जीवात्मा होता है।
फल प्राप्ति के समय की दृष्टी से सकाम कर्म तीन श्रेणियों के होते हैं, क्रियमाण कर्म, संचित कर्म और प्रारब्ध कर्म। जब कर्म करने के साथ ही साथ हमें उसका फल भी मिल रहा होता है तब यह क्रियमाण कर्म कहलाता है। जिस कर्म का फल हमें कर्म करने के साथ नहीं मिलता संचित कर्म कहलाता है, संचित कर्मों में से जिस कर्म का फल हमें किसी समय मिल रहा होता है वह प्रारब्ध कर्म कहलाता है। किसी क्षण पर संचित कर्म के अंतर्गत वे सभी कर्म आते हैं जिनके उस समय तक फल प्राप्त नहीं हुए होते हैं। समय गुजरने के साथ संचित कर्म जुड़ते रहते हैं और कुल संचित कर्मों में से प्रारब्ध कर्म जिनके फल मिल चुके होते हैं घटते रहते हैं। 
किसी भी संचित कर्म के अवशेष रहते जीवात्मा स्वतंत्र नहीं हो पाता, जिस कर्म का वह कर्त्ता है उसका फल तो उसे भोगना ही होता है। अनेक ऐसे कर्म होते हैं जिनका फल जीवन में मृत्यु से पूर्व नहीं मिल पाता। अतः मृत्यु के समय उपलब्ध संचित कर्मों के फलों के भोग के लिए जीवात्मा को नया शरीर पुनर्जन्म के रूप में धारण करना पड़ता है ताकि जीवात्मा फलों का भोग कर सके। 
एक प्रश्न यह हो सकता है कि संचित कर्मों के फलों का भोग जीवात्मा बिना शरीर के क्यों नहीं करता, नया शरीर क्यों धारण करता है। इसका उत्तर यह है कि वास्तव में मन, बुद्धि और इन्द्रियाँ प्रकृति के तीन गुणों से प्रेरित हुयी कर्म करती हैं किन्तु जीवात्मा कर्त्ता स्वयं को मान लेता है। यह जीव के शरीर में विद्यमान अहंकार की बजह से है। फल का भी वास्तविक भोग शरीर ही करता है किन्तु जीवात्मा स्वयं अपने को भोक्ता मानता है। मृत्यु होने पर शरीर नष्ट हो जाता है अतः संचित कर्म उसके साथ नहीं जाते और न ही नष्ट होते हैं। जीवात्मा मरता नहीं है अतः संचित कर्म जीवात्मा के साथ उस समय तक रहते हैं जब तक उनका फल प्राप्त नहीं हो जाता।
जिस समय संचित कर्मों की पूँजी शून्य हो जाएगी अर्थात सभी संचित कर्मों के फल जीवात्मा भोग चुका होगा और जीवात्मा आगे फल की इच्छा से कोई कर्म नहीं करेगा, केवल निष्काम कर्म ही करेगा (यथा बिना मनोरथ के भगवद भक्ति) तब उसे किसी कर्म का फल भोगने के लिए किसी शरीर की आवश्यकता अर्थात पुनर्जन्म की आवश्यकता नहीं रह जाएगी, वह पुनर्जन्म और मृत्यु के बन्धन से छूट जाएगा। यही मुक्ति होगी, यही मोक्ष होगा।

मृत्यु उपरान्त चरित्र हनन : Character Assassination After Death


मित्रो !
किसी व्यक्ति की मृत्यु के बाद उसका चरित्र हनन कायरता तो है ही साथ ही ऐसा करना नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों के विपरीत भी है। कायरता इसलिए कि ऐसा करना पीछे से वार करने और मरे हुए को मारने जैसा है और नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों के विपरीत इसलिए कि मरा हुआ व्यक्ति आरोप के सम्बन्ध में अपना पक्ष प्रस्तुत नहीं कर सकता।

मेरे विचार से यह कार्य घृणित और निंदनीय है। ऐसे कृत्य की जितनी भी निन्दा की जाय वह कम है।





प्रतिशोध

मित्रो !
प्रतिशोध की भावना का उदय बदले की भावना और क्रोध से होता हैं। प्रतिशोध की भावना मस्तिष्क में इतना असन्तुलन पैदा कर देती है कि व्यक्ति अपना हित भी संरक्षित नहीं रख पाता। प्रतिशोध की भावना से ग्रसित व्यक्ति प्रतिद्वन्द्वी को पराजित करने के बाद भी क्रोध की अग्नि में जलता रहता है।