Thursday, April 30, 2015

हमारा भोजन कैसा हो

मित्रो !
हमारा भोजन सुपाच्य और स्वास्थ्यवर्धक हो, इसके लिए हमें निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए :

1. भोजन रूप, रंग और फ्लेवर में अच्छा हो। जिस भोजन के देखने से घृणा या अरुचि होती हो ऐसा भोजन नहीं करना चाहिए। अग्नि को प्रोत्साहित करने के लिए भोजन स्वादिष्ट होना चाहिए। 

2. जो भोजन पकाकर खाया जाता है वह ठीक से पका हुआ होना चाहिए, कच्चा या अधिक पका हुआ नहीं होना चाहिए।
3. पकाये हुए भोजन का खाने के समय ताप शरीर के ताप से थोड़ा अधिक होना चाहिए, भोजन न तो ठंडा होना चाहिए और न ही अत्यधिक गर्म।
4. पकाये गए भोजन को सामान्यतः पकाने के तीन घंटे के अन्दर खा लेना चाहिए।
5. बासी भोजन नहीं खाना चाहिए।
6. भोजन में थोड़ी घी की मात्रा शामिल किये जाने पर जठराग्नि तेज होती है।
7. भोजन अधिक मसालेदार या अधिक घी-तेल वाला नहीं होना चाहिए। अधिक मसालेदार या अधिक घी-तेल वाला भोजन जलन पैदा करता है और गैस बढ़ाता है।
8. मौसम में पैदा होने वाले फल और सब्जियों को खाने में शामिल किया जाना चाहिए।
9. रसेदार शाक और दाल भोजन में शामिल किये जाने चाहिए। 
10. खाने के साथ या खाने से पहले अदरक, नीबू का जूस लेने से जठराग्नि प्रबल होती है।
11. शाम के खाने के लगभग एक घंटे बाद एक गिलास गरम दूध लेना उपयोगी होता है।
12. भोजन के साथ अत्यधिक ठन्डे पदार्थ आइस क्रीम, कोल्ड कॉफी, कोल्ड ड्रिंक्स, आदि नहीं लेना चाहिए। भोजन के साथ गर्म चाय या कॉफी ली जा सकती है। भोजन के साथ अदरक या सौंफ की चाय भी ली जा सकती है। इससे पाचन शक्ति बढ़ती है।
13. यदि संभव हो तब सप्ताह में एक दिन हल्का भोजन फल, सूप, आदि का करना चाहिए। 
14. भोजन तभी करना चाहिए जब खाने का समय हो और भूख लगी हो। अन्यथा भोजन के पचने में कठिनाई होती है।
15. जो पदार्थ भोजन में साथ-साथ लेना वर्जित है, उन्हें साथ-साथ नहीं लेना चाहिए। 
16. भोजन सदैव बैठ कर खाया जाना चाहिए। खड़े होकर या चलते-फिरते या कुछ कार्य करते हुए नहीं लिया जाना चाहिए। 
17. खाने में खट्टे, नमकीन, चटपटे, कड़ुए, मीठे स्वाद वाले पदार्थों को शामिल किया जाना चाहिए किन्तु पदार्थ अत्यधिक कड़ुए,खट्टे, तीखे या मीठे नहीं होने चाहये। भगवान श्री कृष्ण ने श्रीमद भगवद गीता के अध्याय 17 के श्लोक 8 व 9 में निम्प्रकार कहा है :
(1) अध्याय 17, श्लोक 8 :
आयु: सत्त्ववला रोग्यसुखप्रीतिविवर्धनः।
रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्विकप्रियाः।।
जो भोजन सात्विक व्यक्तियों को प्रिय होता है, वह आयु बढ़ाने वाला, जीवन को शुद्ध करने वाला तथा बल, स्वास्थ्य, सुख तथा तृप्ति करने वाला होता है। ऐसा भोजन रसमय, स्निग्ध, स्वास्थ्यप्रद तथा ह्रदय को भाने वाला होता है।
(2) अध्याय 17, श्लोक 9 :
कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णंरूक्षविदाहि
आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः।।
अत्यधिक तिक्त (कड़ुए), खट्टे, नमकीन, गरम, चटपटे, शुष्क, तथा जलन उत्पन्न करने वाले भोजन रजोगुणी व्यक्तियों को प्रिय होते हैं। ऐसे भोजन दुःख, शोक तथा रोग उत्पन्न करने वाले हैं।
18. भोजन के बाद इलायची के बीज या सौंफ चबाने से पाचन शक्ति बढ़ने के साथ-साथ मुंह भी तरोताजा होता है।
19. खाने के बाद पानी न पीकर कम से कम खाना खाने के एक घंटे बाद पानी पीना चाहिए। अत्यधिक ठंडा पानी (chilled water) नहीं पीना चाहिए। यदि खाने के बीच में पानी पीने की आवश्यकता पड़े तब भोजन को ग्रास नाली में नीचे उतारने के लिए एक या दो घूँट (जैसा आवश्यक हो) गुनगुना पानी या सामान्य तापक्रम वाला पानी पीना चाहिए।



भोजन का उपयुक्त समय

मित्रो !
तन और मन स्वस्थ रखने के लिए भोजन की नियमित रूप से आवश्यकता होती है। यह ध्यान देने योग्य है कि कुसमय लिया गया रुचिकर भोजन भी स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं होता जबकि समय पर लिया गया रूखा-सूखा भोजन भी अच्छा होता है। समय से भोजन न लिए जाने से हमारे आमाशय में अम्ल की अधिकता हो जाती है जिससे स्वास्थ्य ख़राब होता है। खाए जा रहे भोजन को पचाने के लिए भोजन लेते समय हमारे आमाशय के अंदर आवश्यक शक्ति की जठराग्नि भी होनी चाहिए अन्यथा भोजन पचने के बजाय पेट में सड़ने लगेगा। मन्द जठराग्नि होने पर कब्ज, गैस, अम्लता बढ़ेगी और अनेक प्रकार के विषाक्त
पदार्थ (toxins) बनेंगे जो शरीर को हानि पहुँचायेंगे। अतः यह आवश्यक हो जाता है कि भोजन दिन के ऐसे समय लिया जाय जब हमारे आमाशय में जठराग्नि उचित मात्रा में उपलब्ध रहती है। 
आयुर्वेद के अनुसार हमारे भारत जैसे देश में दिन के 24 घंटे में तीन बार भोजन लिया जाना पर्याप्त होता है। सुबह का नास्ता (breakfast) सूर्योदय (sunrise) होने के ढाई घंटे के अंदर, दोपहर का भोजन (lunch) मध्यान्ह में, सामान्यतः 1 से 3 बजे के मध्य, और शाम का भोजन (supper) सूर्यास्त (sunset) से ठीक पूर्व लिया जाना उपयुक्त माना गया है। इन समयों पर हमारे आमाशय में उचित मात्रा में जठराग्नि उपलब्ध रहती है। सूर्यास्त के बाद अगली प्रातः सूर्योदय होने के बीच जठराग्नि मन्द रहती है। अतः सूर्यास्त के बाद अगली प्रातः सूर्योदय होने के बीच के समय में लिया गया भोजन ठीक से नहीं पचता। 
भोजन की कितनी मात्रा होनी चाहिए, इस सम्बन्ध में कहा गया है कि हमारा नास्ता अच्छी मात्रा में दोपहर में लिए जाने वाले भोजन की मात्रा के लगभग बराबर या उससे थोड़ा ही कम होना चाहिए। चार बिस्किट और एक कप कॉफी या चाय ले ली, यह सुबह का नास्ता बिलकुल नहीं है। शाम को लिए जाने वाले भोजन की मात्रा दोपहर में लिए गए भोजन की दो-तिहाई (two-third) होनी चाहिए। अगर सूर्यास्त के समय शाम का भोजन लिया जाना संभव नहीं है तब शाम का भोजन सोने से दो-तीन घंटे पूर्व अवश्य लिया जाना चाहिए। दिन भर में लिए जाने वाले भोजन की कुल मात्रा इतनी होनी चाहिए जिससे आपकी कार्य प्रकृति को देखते हुए आवश्यक कैलोरीज मिल जांय। शाम के खाने के कम से कम एक घंटे बाद एक गिलास गरम दूध लेना स्वास्थ्य के लिए हितकर होता है। 
जो व्यक्ति दिन में दो ही बार भोजन करते हैं उन्हें सुबह और शाम को भोजन करना चाहिए किन्तु दोपहर में कुछ अल्पाहार अवश्य करना चाहिए। सुबह का भोजन प्रातः 9 बजे तक और शाम का भोजन यदि सूर्यास्त के लगभग लेना संभव न हो तब सोने से लगभग दो - ढाई घंटे पूर्व अवश्य ले लेना चाहिए।



Wednesday, April 29, 2015

खाने के समय तनाव रहित रहें : Keep Tension Away Before You Eat

मित्रो !
अधिकांश मामलों में यह देखा गया है कि परिवारों में खाने की मेज (Dining Table) पर पति अपनी पत्नी के प्रति और पत्नी अपने पति के प्रति गीले-शिकवे लेकर बैठ जाते हैं या किसी चीज को लेकर अप्रिय टिप्पणी करने लगते हैं। स्कूल जाने वाले बच्चों की अनपेक्षित प्रगति रिपोर्ट और उनके त्रुटिपूर्ण आचरण या क्रिया - कलापों की चर्चा उनके माँ-बाप करने लगते हैं। इससे चर्चा प्रारम्भ करने वाले और उस व्यक्ति जिसको लेकर चर्चा की जा रही होती है के मस्तिष्क तनावग्रस्त हो जाते हैं। मानसिक तनाव की स्थिति में हमारे शरीर में उत्पन्न होने वाले रसों और अन्य द्रव्यों का प्रवाह सामान्य नहीं रह जाता। इसका प्रभाव हमारी भूख और पाचन क्रिया के लिए आवश्यक जठराग्नि पर भी पड़ता है। ऐसा होने पर जठराग्नि मन्द पड़ जाती है। 
मेरा विचार है कि -
भोजन करने के पूर्व और भोजन करने के समय कोई तनाव नहीं होना चाहिए और न ऐसी कोई चर्चा की जानी चाहिए जिससे तनाव का वातावरण बने। ऐसा होने पर एक तो भूख (Hunger) मर जाती है, दूसरे भोजन को पचाने वाली जठराग्नि (Digestive Fire) मन्द पड़ जाती है और खाया गया भोजन ठीक से नहीं पचता। परिणामतः खाया गया भोजन व्यर्थ चला जाता है और अनेक बीमारियों का कारण बन जाता है। 

मेरा यह भी मानना है कि भोजन सुखमय वातावरण में किया जाना चाहिए। ऐसे भी अवसर आते हैं जब आपको अनेक बाहरी लोगों के बीच अपना भोजन लेना होता है और बाहरी लोग उस समय भोजन नहीं ले रहे होते हैं। ऐसी स्थिति में भोजन प्रारम्भ करने से पूर्व अपने पास के लोगों को भी अपना भोजन साझा करने लिए उनसे अनुरोध कर लेना चाहिए। प्रायः लोग धन्यवाद कहकर आपको भोजन करने की अनुमति दे देते हैं (Thanks, go ahead)। अगर कोई साझा करता भी है तब वह भोजन की मात्रा देखकर ही भोजन साझा करता है। दोनों ही परिस्थितियों में आपके लिए भोजन करने के समय खुशनुमा माहौल बन जाता है।





भोजनान्ते विषम वारी : खाने के तुरंत बाद पानी न पियें


मित्रो !
हमारे शरीर, मन तथा बुद्धि को ऊर्जा (energy) हमारे द्वारा लिए जाने वाले भोजन (food) से प्राप्त होती है किन्तु हमारे शरीर के अंग सीधे भोजन से ऊर्जा प्राप्त नहीं कर सकते। इसके अतिरिक्त हमारे द्वारा लिए जाने वाले भोजन में शरीर को ऊर्जा देने वाले पदार्थ भोजन में एक अंश के रूप में विद्यमान रहते हैं, भोजन का शेष भाग अनुपयोगी होता है। जो कुछ हम भोजन के रूप में खाते हैं उसके साथ हमारे आमाशय में दो क्रियाएँ हो सकती हैं। यदि हमारी पाचन शक्ति ठीक है तब आमाशय में भोजन पर पाचन क्रिया (Digestion) होती है और इस क्रिया द्वारा पोषक तत्व और पदार्थ तथा अनुपयोगी तत्व और पदार्थ अलग-अलग हो जाते हैं। पोषक तत्व और पदार्थ शरीर में अवशोषित कर लिए जाते हैं और अनुपयोगी एवं त्याज्य तत्व और पदार्थ मल-मूत्र के रूप में शरीर के बाहर निकल जाते हैं। यदि पाचन शक्ति ठीक नहीं है तब आमाशय में भोजन पचने के बजाय सड़ता (fermentation) है। सड़ने की स्थिति में अनेक विषाक्त पदार्थ (toxins) उत्पन्न होते हैं। यह विषाक्त पदार्थ शरीर में विभिन्न प्रकार की बीमारियां और अवरोध उत्पन्न करते हैं। ऐसी स्थिति में शरीर नीरोग नहीं रह पाता, शरीर को आवश्यक ऊर्जा प्राप्त नहीं हो पाती। इसका प्रतिकूल प्रभाव हमारे शरीर के विकास, कार्य क्षमता, मन तथा बुद्धि पर पड़ता है। शरीर के अंदर हानिकारक गैसें उत्पन हो जाती हैं। दिन भर आलस्य रहता है, किसी कार्य के करने में मन नहीं लगता। आमाशय में भोजन के सड़ने की क्रिया न हो, इसके लिए आवश्यक है कि हमारी पाचन शक्ति ठीक रहे। 
आयुर्वेद चिकित्सा पद्यति के अनुसार हमारे आमाशय में भोजन पचाने का कार्य जठराग्नि (digestive fire) करती है। जैसे ही हम कुछ भी खाते है यह अग्नि प्रदीप्त हो जाती है। यह अग्नि भोजन से पोषक तत्वों और त्याज्य पदार्थों को अलग कर देती है। इस अग्नि के कमजोर होने पर पाचन क्रिया मंद पड़ जाती है और भोजन अधपचा रह जाता है जिसमें विषाक्त पदार्थ (toxins) होते हैं। यह विषाक्त पदार्थ अनेक बीमारियों को जन्म देते हैं। भोजन करने के बाद पानी पीने से यह अग्नि कमजोर पड़ जाती है और भोजन पच नहीं पाता। इस कारण खाना खाने के तुरंत बाद पानी पीना बर्जित (prohibit) किया गया है।
जठराग्नि मंद या ख़राब होने के लक्षणों में जीभ पर सफेद कोटिंग हो जाना, भूख का कमजोर होना या भूख न लगना, मल त्याग का नियमित न होना, मल त्याग के लिए अंदर से जोर लगाने की आवश्यकता का होना, मल का पानी में डूब जाना, अस्पष्ट सोच, सूजन, गैस, कब्ज का होना, सुस्ती रहना, कार्य में अरुचि का होना, आदि होते हैं।
वैसे तो पूर्णरूपेण स्वस्थ शरीर में भी भोजन से पोषक तत्वों और पदार्थों का शत-प्रतिशत निष्कर्षण व्यवहारिक रूप में संभव नहीं होता किन्तु जठराग्नि के अभाव में भोजन से कोई भी पोषक तत्व और पदार्थ प्राप्त नहीं होते। जठराग्नि से हमें भूख होने का भी आभाष होता है। हमारे शरीर की जठराग्नि मंद न पड़े, इसके लिए भोजन में लिए जाने वाले पदार्थों, भोजन करने का समय, भोजन करने के समय वातावरण, भोजन करने के समय हमारे शरीर का आसान या मुद्रा (posture) आदि का भी ध्यान रखना होता। मंद पडी जठराग्नि को भी भोजन में कुछ विशिष्ट पदार्थ शामिल करके अथवा कुछ पदार्थों को छोड़ कर अथवा उनकी मात्रा कम करके ठीक किया जा सकता है।
 यहॉं यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि यदि खाना खाने के तुरंत पानी नहीं पीना है तब खाना खाने के कितने समय बाद पानी पिया जाय? इस सम्बन्ध में यह मानना है कि खाना खाने के एक घंटा और अड़तालीस मिनट बाद खाने पर जठराग्नि का काम समाप्त हो जाता है अतः आदर्श रूप में खाना खाने के 1 घंटा और 48 मिनट बाद पानी पिया जाय किन्तु खाना खाने के 1 घंटे बाद भी पानी पिया जा सकता है। एक प्रश्न यह भी उठता है कि कभी - कभी खाना खाने के दौरान खाना गले या ग्रास नाली में फंस जाता है, क्या तब भी पानी न पिया जाय? इस सम्बन्ध में दो बातें करनी होतीं हैं, एक तो पानी अल्प मात्रा में इतना लिया जाय कि खाना ग्रास नली में आगे बढ़ जाय, दूसरे यह कि ठंडा पानी न पिया जाय, पानी का तापक्रम सामान्य हो या सामान्य से कुछ अधिक हो। यदि खाना खाने से पूर्व पानी पीना है तब खाने से लगभग 45 मिनट पूर्व पानी पिया जाना चाहिए। इतने समय बाद पानी आमाशय में नहीं रहता।
 मित्रो !
हमारे शरीर, मन तथा बुद्धि को ऊर्जा (energy) हमारे द्वारा लिए जाने वाले भोजन (food) से प्राप्त होती है किन्तु हमारे शरीर के अंग सीधे भोजन से ऊर्जा प्राप्त नहीं कर सकते। इसके अतिरिक्त हमारे द्वारा लिए जाने वाले भोजन में शरीर को ऊर्जा देने वाले पदार्थ भोजन में एक अंश के रूप में विद्यमान रहते हैं, भोजन का शेष भाग अनुपयोगी होता है। जो कुछ हम भोजन के रूप में खाते हैं उसके साथ हमारे आमाशय में दो क्रियाएँ हो सकती हैं। यदि हमारी पाचन शक्ति ठीक है तब आमाशय में भोजन पर पाचन क्रिया (Digestion) होती है और इस क्रिया द्वारा पोषक तत्व और पदार्थ तथा अनुपयोगी तत्व और पदार्थ अलग-अलग हो जाते हैं। पोषक तत्व और पदार्थ शरीर में अवशोषित कर लिए जाते हैं और अनुपयोगी एवं त्याज्य तत्व और पदार्थ मल-मूत्र के रूप में शरीर के बाहर निकल जाते हैं। यदि पाचन शक्ति ठीक नहीं है तब आमाशय में भोजन पचने के बजाय सड़ता (fermentation) है। सड़ने की स्थिति में अनेक विषाक्त पदार्थ (toxins) उत्पन्न होते हैं। यह विषाक्त पदार्थ शरीर में विभिन्न प्रकार की बीमारियां और अवरोध उत्पन्न करते हैं। ऐसी स्थिति में शरीर नीरोग नहीं रह पाता, शरीर को आवश्यक ऊर्जा प्राप्त नहीं हो पाती। इसका प्रतिकूल प्रभाव हमारे शरीर के विकास, कार्य क्षमता, मन तथा बुद्धि पर पड़ता है। शरीर के अंदर हानिकारक गैसें उत्पन हो जाती हैं। दिन भर आलस्य रहता है, किसी कार्य के करने में मन नहीं लगता। आमाशय में भोजन के सड़ने की क्रिया न हो, इसके लिए आवश्यक है कि हमारी पाचन शक्ति ठीक रहे।

आयुर्वेद चिकित्सा पद्यति के अनुसार हमारे आमाशय में भोजन पचाने का कार्य जठराग्नि (digestive fire) करती है। जैसे ही हम कुछ भी खाते है यह अग्नि प्रदीप्त हो जाती है। यह अग्नि भोजन से पोषक तत्वों और त्याज्य पदार्थों को अलग कर देती है। इस अग्नि के कमजोर होने पर पाचन क्रिया मंद पड़ जाती है और भोजन अधपचा रह जाता है जिसमें विषाक्त पदार्थ (toxins) होते हैं। यह विषाक्त पदार्थ अनेक बीमारियों को जन्म देते हैं। भोजन करने के बाद पानी पीने से यह अग्नि कमजोर पड़ जाती है और भोजन पच नहीं पाता। इस कारण खाना खाने के तुरंत बाद पानी पीना बर्जित (prohibit) किया गया है।
जठराग्नि मंद या ख़राब होने के लक्षणों में जीभ पर सफेद कोटिंग हो जाना, भूख का कमजोर होना या भूख न लगना, मल त्याग का नियमित न होना, मल त्याग के लिए अंदर से जोर लगाने की आवश्यकता का होना, मल का पानी में डूब जाना, अस्पष्ट सोच, सूजन, गैस, कब्ज का होना, सुस्ती रहना, कार्य में अरुचि का होना, आदि होते हैं।
वैसे तो पूर्णरूपेण स्वस्थ शरीर में भी भोजन से पोषक तत्वों और पदार्थों का शत-प्रतिशत निष्कर्षण व्यवहारिक रूप में संभव नहीं होता किन्तु जठराग्नि के अभाव में भोजन से कोई भी पोषक तत्व और पदार्थ प्राप्त नहीं होते। जठराग्नि से हमें भूख होने का भी आभाष होता है। हमारे शरीर की जठराग्नि मंद न पड़े, इसके लिए भोजन में लिए जाने वाले पदार्थों, भोजन करने का समय, भोजन करने के समय वातावरण, भोजन करने के समय हमारे शरीर का आसान या मुद्रा (posture) आदि का भी ध्यान रखना होता। मंद पडी जठराग्नि को भी भोजन में कुछ विशिष्ट पदार्थ शामिल करके अथवा कुछ पदार्थों को छोड़ कर अथवा उनकी मात्रा कम करके ठीक किया जा सकता है।

यहॉं यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि यदि खाना खाने के तुरंत पानी नहीं पीना है तब खाना खाने के कितने समय बाद पानी पिया जाय? इस सम्बन्ध में यह मानना है कि खाना खाने के एक घंटा और अड़तालीस मिनट बाद खाने पर जठराग्नि का काम समाप्त हो जाता है अतः आदर्श रूप में खाना खाने के 1 घंटा और 48 मिनट बाद पानी पिया जाय किन्तु खाना खाने के 1 घंटे बाद भी पानी पिया जा सकता है। एक प्रश्न यह भी उठता है कि कभी - कभी खाना खाने के दौरान खाना गले या ग्रास नाली में फंस जाता है, क्या तब भी पानी न पिया जाय? इस सम्बन्ध में दो बातें करनी होतीं हैं, एक तो पानी अल्प मात्रा में इतना लिया जाय कि खाना ग्रास नली में आगे बढ़ जाय, दूसरे यह कि ठंडा पानी न पिया जाय, पानी का तापक्रम सामान्य हो या सामान्य से कुछ अधिक हो। यदि खाना खाने से पूर्व पानी पीना है तब खाने से लगभग 45 मिनट पूर्व पानी पिया जाना चाहिए। इतने समय बाद पानी आमाशय में नहीं रहता।
खाने के तुरंत बाद पानी न पियें  





पाचन शक्ति

मित्रो !
अच्छे स्वास्थ्य के लिए उपयुक्त भोजन के साथ - साथ पाचन शक्ति का अच्छा होना भी अनिवार्य है। यदि आप खाए हुए भोजन को पचा नहीं पाते तब स्वास्थ्य की दृष्टि से उपयुक्त भोजन करने से भी कोई फर्क नहीं पड़ता। भोजन कोई भी हो, बिना पचा रहने पर शरीर में अनेक बीमारियाँ उत्पन्न करने का कारण बन जाता है।


जीवन-दर्शन पर विज्ञान की विजय

अनुरोध :
ऐसे मित्रों जिनको मानव मस्तिष्क में पायी जाने वाली चेतना (Consciousness) की जानकारी नहीं हैं उनसे मेरा अनुरोध है कि वे कृपया इस पोस्ट को पढ़ने से पूर्व मेरी Timeline पर उपलब्ध पोस्ट जिसका शीर्षक "पंच तत्व मिलि बना शरीरा" है को पढ़ने का कष्ट करें। 
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मित्रो ! 

जिस क्षण विज्ञान यह जान लेगा कि प्रकृति में पाये जाने वाले अथवा मानव शरीर में विद्यमान या उत्पन्न होने वाले अथवा वैज्ञानिक विधि से बनाये जा सकने वाले ऐसे कौन से तत्व या पदार्थ हैं जो मनुष्य की चेतना में होने वाली क्रियायों के लिए उत्तरदायी हैं?; चेतना में होने वाली क्रियाओं और उनकी तीब्रता पर नियंत्रण कैसे रखा जा सकता है? तथा शरीर पर समय के प्रभाव को निष्क्रिय कर चेतना को शरीर से कैसे बांधे रखा जा सकता है? वह क्षण जीवन-दर्शन पर विज्ञान की विजय का क्षण होगा।

यदि ऐसा हुआ तब -
बलबान और धनबान मनुष्य सभी प्रकार के संतापों से मुक्ति पा लेंगे। भय समाप्त हो जायेगा, मृत्यु का भी भय नहीं रहेगा। मनुष्य इच्छानुसार जीवन जियेगा। ऐसी उपलब्धि "मोक्ष" से भी बड़ी होगी। समाज में व्यवस्था समाप्त हो जाएगी क्योकि गलत कार्यों के करने पर भी भय नहीं रहेगा।

किन्तु विज्ञान द्वारा ऐसी उपलब्धियां प्राप्त किया जाना संभव नहीं है क्योकि जड़ (निर्जीव) से चेतन (सजीव) की उत्पत्ति संभव नहीं हैं। मानव का पुतला बना सकते हैं, रोबोट बना सकते हैं किन्तु इनमें चेतना पैदा नहीं कर सकते। मृत शरीर में चेतना नहीं डाल सकते। चिकित्सा विज्ञान काफी आगे बढ़ा है, उसने मस्तिष्क के उस भाग का पता कर लिया है जहाँ चेतना से सम्बंधित क्रियाएँ जन्म लेतीं हैं किन्तु इन क्रियाओं के होने के कारण का ज्ञान नहीं हो सका है। चेतना जैसा कोई अंग, तत्व या पदार्थ भी नहीं मिला है।

पञ्च तत्व मिलि बना शरीरा

मित्रो !
सनातन धर्म और विश्व के अन्य अनेक धर्मों के अनुयायी यह मानते हैं कि हमारे शरीर की रचना आकाश, वायु, जल, अग्नि और पृथ्वी से हुयी है। जिसे हम आकाश (sky) जानते हैं, वास्तव में आकाश (sky) अपने में कोई तत्व या पदार्थ न होकर पृथ्वी के ऊपर वायुमंडल और ऊपर का रिक्त स्थान प्रदर्शित करता है। इस तथ्य को विज्ञान भी मानता है। इसे शून्य भी कहते हैं। हमारे शरीर में बहुत सारा स्थान रिक्त स्थान के रूप में विद्यमान होता है। शरीर की त्वचा में भी रंध्र (pores) के रूप में रिक्त स्थान होते हैं जिनसे शरीर से पसीना और हानिप्रद पदार्थ भी बाहर निकलते हैं। फेफड़ों के नीचे रिक्त स्थान होने से स्वास लेना और बाहर छोड़ना संभव हो पाता है। अन्य रिक्त स्थानों और उनकी उपयोगिता के बारे में आप स्वयं सोच सकते हैं। रिक्त स्थान की शरीर की आवश्यक प्रक्रियाएं संचालित करने और नीरोग रखने में महत्वपूर्ण भूमिका होती हैं। पृथ्वी तत्व से तात्पर्य पृथ्वी में पाये जाने वाले जड़ तत्वों और पदार्थों से है। अग्नि का गुण एवं प्रभाव ऊष्मा होता है। स्वस्थ शरीर का एक निश्चित तापमान होता है। भोजन को पचाने में अग्नि जठराग्नि के रूप में कार्य करती है। अन्य तत्वों की उपस्थिति के विषय जानकारी हम सभी को है। 
जीवित शरीर (Live body) में आकाश, वायु, जल, अग्नि और पृथ्वी जड़ तत्वों के अतिरिक्त एक तत्व चेतना (consciousness) भी होता है। इस चेतना के कारण ही हमें सभी प्रकार की अनुभूतियाँ होती हैं; हम देखते, सुनते, समझते और चिंतन करते हैं; हमें सर्दी-गर्मी, सुख-दु:ख, आदि की भी अनुभूति होती है और हम अनेक प्रकार के निश्चय तथा चेष्टाएं करते हैं। इस प्रकार की चेतना जड़ तत्व या जड़ तत्व से बने किसी अन्य तत्व का गुण नहीं है। इस चेतना के बिना पांच तत्वों से बना शरीर भी मृत शरीर के सामान जड़ है। जीवित शरीर में चेतना इन पांच तत्वों के अतिरिक्त एक अन्य सजीव तत्व के रूप में विद्यमान रहता है। 
जिन पांच तत्वों (आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी) से शरीर बना है वे सभी जड़ (निर्जीव या inanimate) तत्व या पदार्थ हैं। जड़ तत्वों में कोई चेतना नहीं होती है। जड़ तत्वों या पदार्थों से किसी ऐसी वस्तु की उत्पत्ति नहीं हो सकती जो चेतन हो। जड़ से किसी चेतन की उत्पत्ति नहीं हो सकती, इसका ज्ञान हमारे ऋषियों को हजारों वर्ष पहले हो गया था। इसका अभी तक विज्ञान भी खंडन नहीं कर सका है। ऐसी स्थिति में स्पष्ट है कि आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी सभी जड़ होने के कारण सजीव (चेतन animate) की रचना नहीं कर सकते, केवल जड़ स्वरुप में ही जड़ शरीर की रचना कर सकते हैं। ऐसा जड़ शरीर निष्क्रिय और निश्चल होगा।

श्रीमद भगवद गीता के अनुसार शरीर में उक्त पांच तत्वों के अतिरिक्त प्रकृति जड़ रूप में और आत्मा जीवात्मा के रूप में विद्यमान रहते हैं। जीवात्मा के रूप में आत्मा कर्मों से बंधता है, कर्म फलों का उपभोग भी करता है। वास्तव में यही जीवात्मा चेतन के रूप में शरीर में विद्यमान होता है। आत्मा अपने सर्वोच्च रूप में अकर्ता, अभोक्ता, अपरिवर्तनशील, शाश्वत, अजन्मा, अविनाशी, और समस्त विश्वो का सार है। जीवरूप में आत्मा को परिवर्तनशील, अनित्य,कर्मो का सम्पादन करने वाला और उनके फलो का भोग करने वाला, पुनर्जनम लेने वाला, और शरीर में सीमित माना गया है. वस्तुत जब अविद्या के कारण आत्मा शरीर से सम्बंधित हो जाता है तो वह जीवात्मा कहलाता है।
इस आधार पर हम कह सकते हैं कि -
जीवित शरीर मात्र पांच तत्वों पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से ही नहीं बना है क्योंकि यह सभी जड़ (inanimate) पदार्थ हैं। अभी तक यह निर्विवाद है कि जड़ से चेतन की उत्पत्ति संभव नहीं है। जीवित शरीर में तीन ज्ञानात्मक, भावात्मक और क्रियात्मक गुणों वाली चेतना (consciousness) भी होती है। इस चेतना के कारण ही हमें सभी प्रकार की अनुभूतियाँ होती हैं, हम देखते, सुनते, समझते और चिंतन करते हैं, हमें सर्दी-गर्मी, सुख-दु:ख, आदि की भी अनुभूति होती है और हम अनेक प्रकार के निश्चय तथा चेष्टाएं करते हैं।

ज्ञान और कर्म का महत्व

मित्रो !
ज्ञान और कर्म अनमोल ही नहीं जीवन के लिए अपरिहार्य भी हैं। इनके बिना जीवन में न तो कोई सृजनात्मक कार्य हो सकता है और न ही जीवन को गति मिल सकती है। ज्ञान ही हमें विभिन्न कर्मों के परिणाम, उद्देश्य पूर्ति हेतु उचित कर्म, कर्म करने के लिए आवश्यकताओं और कर्म करने की पद्यति के विषय में बताता है। अतः ज्ञान के बिना कर्म कर पाना संभव नहीं है। ज्ञान और कर्म के बिना जीवन निर्बाह भी सम्भव नहीं है। ज्ञान और कर्म दोनों ही वन्दनीय एवं पूजनीय हैं।


ईश्वर का अस्तित्व

मित्रो !
भौतिक रूप में उपलब्ध चीजों का अस्तित्व हम स्वीकार करते है। यदि हम इसके परे (beyond) जाकर ऐसी अन्य चीजो पर विचार करें जिनका हम अस्तित्व में होना मान सकते है तब हम पाते हैं कि ऐसी चीजों जो भौतिक रूप में अदृश्य (Invisible) और अगम्य (Inaccessible) हों किन्तु जिनका प्रयोग किया जा सकता हो अथवा जिनका प्रभाव देखा या अनुभव किया जा सकता हो के सम्बन्ध में यह स्वीकार नहीं किया जा सकता कि उनका अस्तित्व नहीं है। मेरा मानना है कि इन तथ्यों के आधार पर हम ईश्वर के अस्तित्व पर भी विचार कर सकते हैं।


ईश्वर है : GOD EXISTS

मित्रो !
     ईश्वर है, मेरे ऐसा मानने के अनेक कारणों में से एक कारण यह भी है कि मुझसे प्रत्येक क्षेत्र, बुद्धि, विवेक, व्यवहारिकता, आदि में अग्रणी रहे असंख्य लोगों ने माना है कि ईश्वर है और मेरे पास उनके इस विश्वास को नकारने का एक भी कारण नहीं है। 



प्यार की समझ होना जरूरी

मित्रो !
कभी - कभी पति-पत्नी को शिकायत होती है कि उनका जीवन साथी उन्हें प्यार नहीं करता जब कि उनके साथी का दावा होता है कि वे अपने साथी को बहुत प्यार करते हैं। ऐसी स्थिति मधुर जीवन के लिए घातक होती है। यदि पति और पत्नी के दावे सही हैं तब इसका कारण यही हो सकता है कि एक पक्ष प्यार करे किन्तु दूसरा पक्ष प्यार की भाषा और भाव - भंगिमाएं समझने में असमर्थ रहे। ऐसे में शिकायतकर्त्ता के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वह प्यार की भाषा और भाव - भंगिमाएं को जाने। 

जो प्यार की भाषा और भाव-भंगिमाओं से अनभिज्ञ है उसकी प्यार न मिलने की शिकायत का तब तक दूर किया जाना संभव नहीं है जब तक ऐसा व्यक्ति प्यार की बोली और भाव-भंगिमाओं से परिचित नहीं हो जाता।


स्थायी और अस्थायी ख़ुशी

मित्रो !
आत्म सन्तोष के रूप में मिलने वाली ख़ुशी स्थायी और वास्तविक ख़ुशी होती है। इसे कोई साझा नहीं कर सकता। इस कारण इसका क्षय नहीं होता। अन्य प्रकार की ख़ुशी अस्थायी ख़ुशी होती है जो मिलते ही छलक जाती है।





बुरे काम का बुरा नतीजा

मित्रो !
     यह अज्ञानी और नास्तिक की सोच होती है कि वह किसी दूसरे व्यक्ति को धोखा देकर अपनी इच्छित वस्तु उससे पा लेगा। ज्ञानी और आस्तिक यह जानता है कि धोखा देकर किसी से कोई वस्तु प्राप्त करना अपराध है, ईश्वर, सर्वशक्तिमान होने के साथ सर्वव्यापी और सर्वज्ञानी भी है अतः किसी का कोई भी कृत्य उससे छिपा नहीं रह सकता, वह यह भी जनता है कि कर्त्ता दुष्कृत्य करने से बुरे फल का भागीदार बनता है, अगर दुष्कृत्य करने वाला कोई व्यक्ति किसी समय अच्छा फल भोग रहा है तब ऐसा फल दुष्कृत्य का न होकर उस व्यक्ति द्वारा पूर्व में किये गए किसी सुकृत्य का फल है जिसे अज्ञानतावश पुरुष दुष्कृत्य का फल समझ रहा है।





Wednesday, April 8, 2015

घातक संवादहीनता


         दो व्यक्तियों या पक्षों के बीच संवादहीनता के परिणाम कभी-कभी बहुत ही दुखदायी और हानिप्रद प्रमाणित होते हैं। परिवार के अंदर बड़ों और छोटों के बीच संवादहीनता होने पर छोटों का विकास प्रभावित होता है। स्नेह की कमी आती है। बराबर के रिश्तों में हल्कापन आ जाता है। रिश्तों में बिखराव आने लगता है। 
         दो पक्षों के बीच संवादहीनता दूरियाँ बढ़ाती है। संवाद के अभाव में संयुक्त हित के किसी मामले में एक पक्ष अपने प्रति किसी भी प्रतिकूल परिणाम के लिए बिना कारण जाने दूसरे पक्ष को दोषी मान कर अपने द्वारा कल्पना किये गए असत्य कारण को भी सत्य मान लेता है और दूसरे पक्ष से दूरियाँ और भी बढ़ा लेता है। 

        संवादहीनता से छुटकारा पाने के लिए सबसे अधिक महत्व का होता है अहम भाव का त्याग करना। परिवार में बड़ों को चाहिए कि वे अपने से आयु में छोटे सदस्यों से लगातार संपर्क में रहे, उनके कार्यों की प्रगति और प्रगति में आने वाली कठिनाइयों के सम्बन्ध में बात-चीत करने के साथ-साथ उनके प्रति सहानुभूति प्रदर्शित करने वाले संवाद करते रहे। परिवार के बाहर किसी अन्य व्यक्ति या पक्ष के साथ संवादहीनता तोड़ने के लिए दोनों पक्षों को परोक्ष रूप में इस प्रकार व्यवहार करना चाहिए कि वे दूसरे पक्ष के हितैषी हैं। जहाँ सीधा संवाद प्रारम्भ करने में कठिनाई हो वहाँ पर, किसी ऐसे तीसरे व्यक्ति जिसके दोनों पक्षों से अच्छे सम्बन्ध हों, सहारा लिया जाना चाहिए। लगभग सभी संस्कृतियों में कुछ ऐसे त्यौहार होते हैं जिन पर समाज में लोग एक-दूसरे से गले मिलते हैं, एक-दूसरे को बधाई देते हैं। ऐसे अवसरों का लाभ उठाकर मिलना चाहिए। ऐसे अवसरों पर अधिक से अधिक ऐसी वार्ता करनी चाहिए जो अपनत्व बढ़ाने वाली हो। वार्ता से ऐसा लगना चाहिए कि वे एक-दूसरे के हितैषी हैं। ऐसे अवसरों पर मतभेद के मुद्दे का जिक्र नहीं करना चाहिए।


वसुधैव कुटंबकम

मित्रो !
कितनी विडम्बना है कि हम "वसुधैव कुटंबकम" जैसे दर्शन की वकालत करते हैं किन्तु वास्तविकता यह है कि हमारे बीच से अनेक लोग उस परिवार को भी एक नहीं रख पाते जिसमें ईश्वर ने हमें जन्म दिया है। हमें "Charity begins at home" मुहाबरे को नहीं भूलना चाहिए। व्यवहारिकता से परे जीने की कल्पना मिथ्या है। अपने चारों ओर का दायरा बढ़ाने का काम अंदर से बाहर की ओर अपने पास से ही शुरू करना पड़ता है।



हमारा वर्तमान


     हमारे भूत और भविष्य के मध्य, हमारा वर्तमान समय का एक ऐसा बहुत छोटा गुजरता लम्हा है जिसमें हम अपने सभी व्यवहारिक कार्य करते हैं, भूत काल में किये गए कार्यों की समीक्षा करते हैं और भविष्य के लिए योजनायें बनाते हैं। समय के एक लम्हें के गुजरने के साथ ही, गुजरा हुआ लम्हा हमारे भूतकाल का हिस्सा बन जाता है और नया लम्हां हमारे सामने वर्तमान के रूप में अस्तित्व में आ जाता है। इस प्रकार हमारे जीवन के अन्तिम क्षण तक वर्तमान में निरन्तरता बनी रहती है।
        हम भूत या भविष्य में जाकर कोई कार्य व्यवहारिक रूप में नहीं कर सकते। अतः हमें चाहिए कि हम अपने वर्तमान का सही उपयोग कर एक अच्छा जीवन जियें।



   

कर्म के अनुसार फल


भिन्न-भिन्न कर्मों के फल भी कर्मों के अनुसार भिन्न-भिन्न प्राप्त होते हैं। अच्छे कर्मों के फल अच्छे और बुरे कर्मों के फल बुरे होते हैं। अच्छे और बुरे फलों का आपस में समायोजन नहीं होता। यह नहीं समझना चाहिए कि एक बार किसी को रुलाने के बाद एक बार उसे हँसा देने से हिसाब बराबर हो जायेगा। यह सोचना गलत है कि जिंदगी भर पाप करने के बाद मृत्यु से पूर्व गरीबों को भोजन करा देने से पापों का प्रभाव मिट जाएगा। कर्मों के फल के रूप में हमें दंड मिलेगा और गरीबों को भोजन करने के फल के रूप में हमें कुछ अच्छा प्राप्त होगा। 

ऐसे में हमें चाहिए कि हम अपने दैनिक जीवन में अनपेक्षित करने से बचें और सदैव अपेक्षित ही करें।


हमारा कार्य काल : भूत, भविष्य या वर्तमान

            समय का चक्र अनवरत रूप से गतिमान रहता है। गणना के उद्देश्य से समय की इकाइयां वर्ष, माह, दिन, घंटा, मिनट और सेकण्ड निर्धारित की गयीं हैं। यदि हम समय चक्र द्वारा तय की जाने वाली दूरी को एक काल्पनिक सरल रेखा से निरूपित करें और उसके वर्ष, माह, दिन, घंटा, मिनट और सेकंड में बंटा हुआ होने की कल्पना करें, साथ ही यह भी मान लें कि समय-चक्र घड़ी की सुइयों की दिशा में घूम रहा है तब जिस विन्दु पर हम खड़े हैं, वह विन्दु हमारा वर्तमान निरूपित करेगा, उससे ठीक बायीं ओर का भाग हमारे लिए भूत काल और इस विंदु के ठीक दायीं ओर का भाग, जो वास्तविक न होकर काल्पनिक होगा, हमारा भविष्य काल निरूपित करेगा। 
           समझने के उद्देश्य से इस काल्पनिक रेखा को यहाँ पर हम "समय का पैमाना" (Time Scale) शब्दों से सम्बोधित करेंगे। हम सशरीर अपने जन्म से लेकर मृत्यु तक इसी समय के पैमाने के समानान्तर उस विन्दु पर रहते हैं जो समय चक्र के अनुसार वर्तमान समय होता है। यह विन्दु हमारे जीवन का उस समय का वर्तमान होता है। चूंकि समय-चक्र अनवरत रूप से गतिमान रहता है अतः समय के पैमाने पर हमारी स्थिति समय के मान के अनुसार बदलती रहती है। अतः हमारे वर्तमान का समय भी बदलता रहता है और समय के पैमाने के साथ यात्रा करता रहता है। 



हमारा वर्तमान, भूत और भविष्य काल

समय का चक्र अनवरत रूप से गतिमान रहता है। गणना के उद्देश्य से समय की इकाइयां वर्ष, माह, दिन, घंटा, मिनट और सेकण्ड निर्धारित की गयीं हैं। यदि हम समय चक्र द्वारा तय की जाने वाली दूरी को एक काल्पनिक सरल रेखा से निरूपित करें और उसके वर्ष, माह, दिन, घंटा, मिनट और सेकंड में बंटा हुआ होने की कल्पना करें, साथ ही यह भी मान लें कि समय-चक्र घड़ी की सुइयों की दिशा में घूम रहा है तब जिस विंदू पर हम खड़े हैं, वह विन्दु हमारा वर्तमान निरूपित करेगा, उससे ठीक बायीं ओर का भाग हमारे लिए भूत काल और इस विंदु के ठीक दायीं ओर का भाग हमारा भविष्य काल निरूपित करेगा।



अच्छे -बुरे का निर्धारण

जब कोई व्यक्ति किसी वस्तु में खामियां ढूढ़ने के नजरिये से वस्तु का निरीक्षण या परीक्षण करता है तब उसकी नज़र वस्तु की अच्छाइयों पर नहीं जाती। ऐसे में खामियां ढूढ़ने वाले व्यक्ति को वस्तु में एक भी खामी नजर आ जाने पर वह वस्तु को ख़राब या अनुपयोगी घोषित कर देता है। इसी तरह उसी वस्तु में अच्छाइयाँ ढूंढने वाले व्यक्ति को एक भी अच्छाई नज़र आ जाने पर वह व्यक्ति उसी वस्तु को अच्छा या उपयोगी घोषित कर देता है। वस्तु का इस प्रकार किया गया मूल्यांकन उचित नहीं ठहराया जा सकता है। ऐसी स्थिति में किसी वस्तु के अच्छे या ख़राब होने का निर्धारण उस वस्तु की समस्त खूबियों और खामियों को संज्ञान में लेकर सम्पूर्ण मूल्यांकन (Overall Assessment) के आधार पर किया जाना चाहिए।