Saturday, December 5, 2015

अक्षय एवं असीमित प्यार

मित्रो !

     प्यार की भावना ईश्वर की अनमोल देन है। प्रत्येक प्राणी के अन्दर प्यार का अक्षय एवं असीमित भण्डार होता है। इसमें से जितना प्राणी खर्च करता है ईश्वर उतने की प्रतिपूर्ति कर देता है। 
     जो प्यार से अनभिज्ञ रहता है या जानकार होने के बाद भी इसे खर्च नहीं करता वह घाटे में रहता है। जो प्यार को जानता है और खर्च करता है वह खुशियाँ बिखेरता और समेटता रहता है , उसका जीवन हरे-भरे बगीचे के समान होता है।


सोच का प्रदूषण - I


मित्रो !
       महामहिम राष्ट्रपति भारत सरकार, प्रणब मुखर्जी द्वारा दिनांक दिसम्बर 01, 2015 को साबरमती आश्रम अहमदाबाद, गुजरात में एक उदघाटन समारोह में एकत्र हुए जन समुदाय को सम्बोधित करते हुए निम्न प्रकार अपने विचार व्यक्त किये हैं :
“The real dirt of India lies not on our streets but in our minds and in our unwillingness to let go of views that divide society into them and us, pure and impure.” 
      मेरे द्वारा यहीं फेसबुक पर अपनी टाइमलाइन पर नवम्बर 21, 2015 को इसी शीर्षक "सोच का प्रदूषण" से निम्न लिखित शब्दों में फोटो के साथ एक पोस्ट प्रकाशित की गयी थी :
     "पर्यावरण प्रदूषण की समस्या तो अपनी जगह है ही, दुनियां के विभिन्न देश इसको कम करने के लिए सक्रिय भी हैं किन्तु विकृत विचारों, वैमनस्य, असहिष्णुता, आदि से हमारी सोच में होने वाला प्रदूषण एक बड़ी चिंता का विषय है। इसके चलते मानवता और भाईचारे के मूल्यों में लगातार ह्रास हो रहा है।"
     मेरा मानना है कि यदि ऐसे प्रदूषण पर नियंत्रण न पाया गया तब हमारी प्रगति शून्य हो जाएगी, हम असभ्य की श्रेणी में पहुँच जायेंगे और यदि ऐसा हुआ तब ईश्वर भी हमारी मदद नहीं करेगा क्योंकि वह अपनी संतानों से ऐसे कुत्सित आचरण की अपेक्षा नहीं करता। परमपिता ही क्या कोई भी पिता अपनी संतानों को आपस में लड़ता - झगड़ता नहीं देखना चाहता।
    आप सोच सकते हैं यह विचारों का प्रदूषण कितना गंभीर विषय है। मेरे द्वारा पूर्व में 21-11-2015 को व्यक्त किये गए विचारों को महामहिम द्वारा 01-12-2015 को साबरमती आश्रम, अहमदाबाद में व्यक्त किये गए विचारों से बल मिलता है।



सोच का प्रदूषण 
मित्रो !

   "पर्यावरण प्रदूषण की समस्या तो अपनी जगह है ही, दुनियां के विभिन्न देश इसको कम करने के लिए सक्रिय भी हैं किन्तु विकृत विचारों, वैमनस्य, असहिष्णुता, आदि से हमारी सोच में होने वाला प्रदूषण एक बड़ी चिंता का विषय है। इसके चलते मानवता और भाईचारे के मूल्यों में लगातार ह्रास हो रहा है।"
   मेरा मानना है कि यदि ऐसे प्रदूषण पर नियंत्रण न पाया गया तब हमारी प्रगति शून्य हो जाएगी, हम असभ्य की श्रेणी में पहुँच जायेंगे और यदि ऐसा हुआ तब ईश्वर भी हमारी मदद नहीं करेगा क्योंकि वह अपनी संतानों से ऐसे कुत्सित आचरण की अपेक्षा नहीं करता। परमपिता ही क्या कोई भी पिता अपनी संतानों को आपस में लड़ता - झगड़ता नहीं देखना चाहता।
आप सोच सकते हैं यह विचारों का प्रदूषण कितना गंभीर विषय है।




मा फलेषु कदाचन


मित्रो !
       कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। तुम्हें अपना कर्म करने का अधिकार है, किन्तु कर्म के फलों के तुम अधिकारी नहीं हो। भगवान श्रीकृष्ण ने ऐसा क्यों कहा है ? 
       गीता के अध्याय 2 के श्लोक 47 के अनुसार कर्म करने का अधिकार मनुष्य को मिला है किन्तु मनुष्य फल का अधिकारी नहीं है। विचारणीय यह है कि क्या कर्म का कोई फल नहीं होता ? क्या कर्म करने से फल नहीं मिलता ? क्या यहाँ पर निस्वार्थ कर्म करने की बात कही गयी है ? ऐसे प्रश्न मन में प्रायः उठते हैं। वास्तव में ऐसा नहीं है। प्रत्येक कर्म का एक फल होता है। कर्म करने वाले को इसका फल मिलता भी है। ईश्वर महान्यायी है, वह कर्म करने वाले प्रत्येक मनुष्य को उसके कर्म का फल देता है किन्तु मनुष्य अपने द्वारा किये गए कर्म का फल स्वयं नहीं चुन सकता, कर्म के अनुसार फल का निर्धारण ईश्वर ही करता है। 
       क्या कर्म करना है, का चुनाव मनुष्य करता है। अगर फल के चुनाव का अधिकार मनुष्य को मिल जाय तब प्रत्येक मनुष्य प्रत्येक कर्म का सर्वोत्तम फल ही लेना चाहेगा भले ही उसने आधा-अधूरा कार्य किया हो। मनुष्य अपराध करके भी स्वर्ग भोगना चाहेगा। अच्छे और बुरे का भेद ही समाप्त हो जायेगा। इसी कारण कर्म के चयन करने और चयनित कर्म को करने का अधिकार मनुष्य को दिया गया है और फल के चयन करने का अधिकार मनुष्य को नहीं दिया गया है।



न करें दाता का अपमान


मित्रो !
     जो ख़ुशी मिली नहीं उसकी चाहत में जो खुशियाँ मिलीं हैं उनका व्यर्थ में गँवा देना स्वयं की मूर्खता और खुशियाँ देने वाले का अपमान है। 
    जो मिला नहीं उसका गम नहीं, जो मिला है वह कम नहीं। गोस्वामी तुलसी दास जी ने उचित ही कहा है "जाही विधि राखे राम ताही विधि रहिये।"


असहिष्णुता


मित्रो !
     आज हम इस बात पर गर्व कर सकते हैं कि सहिष्णुता के मामले में हम अन्य देशों से आगे हैं। किन्तु इस आधार पर सहिष्णुता में विश्वास रखने वाले देश में किसी व्यक्ति को असहिष्णु आचरण करने की छूट नहीं दी जा सकती है।


कारण और उद्देश्य


मित्रो !
      कारण और उद्देश्य के जाने बिना हमें कोई कार्य नहीं करना चाहिए।

We should not act without knowing the reason and the purpose.


बदनामी पीछा नहीं छोड़ती


मित्रो !
     बदनाम व्यक्ति द्वारा नेक इरादों से किये गए कार्यों को भी लोग संदेह की दृष्टि से देखते हैं। हमें चाहिए कि हम अपनी विश्वसनीयता बनाये रखने के लिए अच्छे कार्य करते हुए अपनी अच्छी छवि का निर्माण करें।


जन अदालत माफ़ नहीं करती


मित्रो !
      हमें याद रखना चाहिए कि जनता के बीच या जनता के साथ किये गए किसी अपराध के मामले में कोई अदालत सबूतों के अभाव में किसी अपराधी को भले ही ससम्मान बरी कर दे किन्तु जनता न तो अपराधी को सम्मान लौटाती है और न ही कभी माफ़ करती है। जनता अपने अपराध करने वाले को अपराधी ही मानती है।
     जन अदालत सबूतों की मोहताज नहीं होती, वह अपना निर्णय आत्मा की आवाज पर करती है। उसकी नज़रों में अपराधी सदैव अपराधी रहता है और निर्दोष सदैव निर्दोष रहता है, भले ही न्यायलय द्वारा इसके विपरीत निर्णय दिए गए हों।


देश और समाज हित



मित्रो !
     प्रत्येक व्यक्ति अपने देश और समाज का ऋणी होने के साथ-साथ इनकी एक इकाई भी होता है। उसका दयित्व होता है कि वह देश और समाज की बेहतरी के लिए कार्य करे।


धर्म परिवर्तन


मित्रो !
    मैंने पूर्व में एक पोस्ट "धर्म-क्षेत्र में परिवर्तनों की गुंजाइश : Scope for Changes in the Field of Religion" शीर्षक से प्रकाशित की थी। इस पोस्ट में मैंने निम्नप्रकार विचार व्यक्त किये थे :
मेरे विचार से सनातन धर्म के अनुयायियों के लिए धर्म के दो भाग होते हैं। एक भाग में जीवन के अपरिवर्तनशील शाश्वत मूल्य होते हैं, दूसरे भाग में रीति-रिवाज (customs & traditions) और जीवन शैली होते हैं। मेरा मानना है कि शाश्वत मूल्यों पर प्रभाव डाले बिना मानव जीवन की बेहतरी के लिए दूसरे भाग में किये गए परिवर्तनों से धर्म की हानि नहीं होती। 
    यदि हम लोगों को यह समझा पाने में कामयाब हो जाते हैं तब हम अनेक कुरीतियों से समाज को बचा सकते हैं। इसी सन्दर्भ में मैं कहना चाहूँगा कि - 
   हिन्दू दलितों और आदिवासियों द्वारा हिन्दू धर्म को छोड़कर कोई अन्य धर्म अपनाना उनका शौक नहीं, उनकी मजबूरी है। मेरा मानना है कि धार्मिक एकता की वकालत करने वालों द्वारा उनकी मजबूरियों को समझने और दूर करने की दिशा में सकारात्मक पहल किये जाने की जरूरत है।


आरक्षित ईश्वर

मित्रो !

     कभी-कभी इस सोच में पड़ जाता हूँ कि अगर मेरा जन्म हिन्दू धर्म के अनुयायी किसी दलित परिवार में हुआ होता और जब मेरी कोई संतान किसी मंदिर के पास से गुजरने पर मंदिर में बैठे ईश्वर को देखने की जिद करती तब मैं उसे क्या कह कर बहलाता।

     क्या मैं यह कह देता कि यह तुम्हारा ईश्वर नहीं है या उससे अगले जन्म का इंतजार करने को कहता या शायद मैं यह भी सोचने को विवश हो जाता कि मैं कोई ऐसा धर्म अपना लूँ जिसमें ईश्वर के घर के दरवाजे बिना किसी भेदभाव के सभी के लिए खुले रहते हैं और जिसके अनुयायियों में ऊँच-नीच को लेकर इंसानों में भेदभाव नहीं होता।
    मंदिर की सुरक्षा, सफाई,  पवित्रता और शांति को बनाये रखने के उद्देश्य से किसी व्यक्ति को मंदिर में प्रवेश न देना उचित हो सकता है किन्तु स्त्री-पुरुष, अमीर-गरीब, धर्म और जाति के आधार पर भेद-भाव किया जाना पूर्णतः अनुचित है। ईश्वर केवल चयनित वर्ग के ही लोंगों का नहीं है, वह (ईश्वर) तो उन सब का है जो उसमें विश्वास करते हैं। 


Friday, November 20, 2015

सोच का प्रदूषण


मित्रो !
        पर्यावरण प्रदूषण की समस्या तो अपनी जगह है ही। दुनियां के विभिन्न देश इसको कम करने के लिए सक्रिय भी हैं किन्तु विकृत विचारों, वैमनस्य, असहिष्णुता, आदि से हमारी सोच में होने वाला प्रदूषण एक बड़ी चिंता का विषय है। इसके चलते मानवता और भाईचारे के मूल्यों में लगातार ह्रास हो रहा है। 
        मेरा मानना है कि यदि ऐसे प्रदूषण पर नियंत्रण न पाया गया तब हमारी प्रगति शून्य हो जाएगी, हम असभ्य की श्रेणी में पहुँच जायेंगे और यदि ऐसा हुआ तब ईश्वर भी हमारी मदद नहीं करेगा क्योंकि वह अपनी संतानों से ऐसे कुत्सित आचरण की अपेक्षा नहीं करता। परमपिता ही क्या कोई भी पिता अपनी संतानों को आपस में लड़ता - झगड़ता नहीं देखना चाहता।


ईश प्रार्थना


मित्रो !
        ईश्वर की प्रार्थना के पहले भाग में हम ईश्वर की सर्वोच्च सत्ता को स्वीकार करते हैं और उसकी स्तुति करते हैं, प्रार्थना के दूसरे भाग में हम अपने से जाने और अनजाने में हुयी त्रुटियों और अपराधों के लिए क्षमा माँगते हैं है। प्रार्थना के तीसरे भाग में अपने और सभी के लिये कल्याण की कामना करते हैं।
        प्रार्थना प्रायः कविता के रूप में होतीं हैं किन्तु यदि ईश्वर का स्मरण गद्य रूप में भी किया जाता है तब वह भी प्रार्थना ही होती है। अनेक धर्मों के अनुयायियों द्वारा की जाने वाली प्रार्थनाओं में यही तीन भाग होते हैं। 
        हे ईश्वर ! तू सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञानी है, तू दयालु है, सभी को क्षमा प्रदान करने वाला है, तू सभी का कल्याण करने वाला है। मैं तुझे प्रणाम करता हूँ। हे प्रभु ! मुझसे जाने और अनजाने में हुए अपराधों को क्षमा करें। मुझे सदमार्ग पर ले चलें और जगत का कल्याण करे, सभी सुखी और निरोगी हों।


वैवाहिक जीवन के कमजोर होते धागे : Weakening Marriage Relations

मित्रो !
        अनेक मामलों में जीवन भर, जनम-जनम या सात जनम तक साथ निभाने वाले वादों पर बने रिश्ते इसी जन्म में कुछ दूर चलकर ही दम तोड़ रहे हैं। यहाँ तक कि उनकी अबोध संताने भी रिश्तों के बिखराव को रोक पाने में समर्थ नहीं हो पा रहीं हैं। मानवता, दया और करुणा भी इनके लिए कोई मायने रखते नहीं दिखाए दे रहे हैं। ऐसा क्यों हो रहा है, इसके कारणों पर विश्लेषण किये जाने की आवश्यकता है।
       अभी हाल में ही एक हिंदी दैनिक समाचार पत्र में एक समाचार प्रकाशित हुआ था। समाचार के अनुसार एक जिला स्तरीय न्यायालय जो तलाक के मामले की सुनवाई कर रहा था उसके द्वारा इस आशय की टिप्पणी की गयी थी कि तलाक के मामलों की बढ़ती संख्या एक चिंता का विषय है। उनके द्वारा यह भी टिप्पणी की गयी थी कि तलाक के अधिकांश मामले प्रोफेशनल्स से सम्बंधित हैं। 

      मित्रो एवं प्रियजनों ! उपर्युक्त संदर्भित समाचार के पढ़ने से पहले भी मेरा इस ओर ध्यान गया था और इस पर मैं एक पोस्ट लाना चाहता था। किन्तु अब तक इसे नहीं ला सका। मेरा विचार है कि इस सम्बन्ध में कारणों का विश्लेषण किया जाना आवश्यक है। यह विषय गंभीर चिंतन चाहता है। मैं इस विषय पर शीघ्र ही आर्टिकल लाना चाहूँगा। तब तक चिंता ही जाहिर कर सकता हूँ , यही कह सकता हूँ कि इस पर नियंत्रण पाया जाना समाज के हित में होगा।

    अभी हाल में ही तलाक का मुक़दमा सुन रहे एक न्यायालय ने तलाक के मामलों में बृद्धि पर चिंता व्यक्त की है। इसमें अधिकांश मामले पेशेवरों (professionals) के बताये गए हैं। तलाक का सबसे बुरा प्रभाव बच्चों के भविष्य पर पड़ता है। विचारणीय यह है कि हम किस प्रकार के समाज की रचना करना चाहते हैं?



समझाया तर्क से जाता है और मनवाया बल से

मित्रो !
        तर्क संगत बात को सामान्य व्यक्ति से मनवाने के लिए बल की आवश्यकता नहीं होती। किसी बात को बलपूर्वक मनवाने की तीन परिस्थितियाँ ही हो सकती हैं, या तो श्रोता तर्क समझता न हो या समझना न चाहता हो या फिर बात तर्क की कसौटी पर खरी न उतर रही हो।
       तर्क संगत बात न समझने वाले लोगों में बच्चे और किसी भी उम्र के मन्दबुद्धि लोग हो सकते हैं। जो लोग तर्क संगत बात जानबूझकर नहीं समझना चाहते वे तर्क संगत बात कहने वाले व्यक्ति से ईर्ष्या रखने वाले, मिथ्या अभिमान करने वाले, सत्य को झुठलाने वाले या कही गयी बात से किसी प्रकार आहत होने वाले अथवा दायित्वों का निर्वहन न करने वाले व्यक्ति हो सकते हैं। इन दोनों प्रकार के व्यक्तियों से तर्क संगत बात मनवाने के लिए अतिरिक्त प्रयास करने पड़ते हैं। उन पर इसका कोई प्रभाव नहीं होता की बात तर्क संगत है। अन्य व्यक्ति तर्क संगत बात से सहमति व्यक्त कर उसे स्वीकार कर लेते हैं।


समतामूलक समाज की स्थापना


मित्रो !
        यदि हम समाज में समता चाहते हैं तब हमें समाज के वंचितों को उनके वे अधिकार जिनसे वे वंचित हैं उन्हें लौटाने होंगे और उनकी दूसरों पर निर्भरता समाप्त कर उन्हें आत्मनिर्भर बनाना होगा।


प्रिय वचन कड़वा क्यों लगता है


मित्रो !
        मीठे का स्वाद उन्हीं को कड़वा या कसैला लगता है जो अस्वस्थ होते हैं। यह बात विचारों के सम्बन्ध में भी लागू होती है। मन और बुद्धि में विकार के रहते प्रिय वचन भी हमें कड़वा लगता है।
        अगर मन मैला नहीं है तब मीठे बोल सभी को प्रिय होते हैं। ऐसे में यदि हमें कोई प्रिय वचन कड़ुआ लग रहा है तब हमें अपने मन को टटोलना चाहिए और विकार का पता लगाकर उसे दूर करना चाहिए।


मध्यम वर्ग का वित्तीय प्रबंधन : Budget Management of Middle Class Family


मित्रो !

        मैं अपनी बात कहने से पूर्व देवियों से क्षमा माँगना चाहूँगा। मध्यम वर्गीय परिवारों के अधिकांश मामलों में देवियाँ ही शोपिंग करने जातीं हैं, कुछ मामलों में पुरुष और स्त्री दोनों ही जाते हैं। अन्य मामलों में पुरुष शोपिंग करने जाते हैं। अतः ऐसे पुरुषों जो घरेलू उपयोग की वस्तुओं की शॉपिंग करते है उनसे भी मैं क्षमा चाहूँगा। मेरा विचार है कि - 
       कुछ मध्यम वर्गीय परिवारों के लोग अपनी आय स्त्रोतों के अनुरूप आवश्यकता की वस्तुओं का आकलन किये बिना घरेलू उपयोग की वस्तुओं की खरीद के लिए बड़े स्टोर्स में घुस जाते हैं। ऐसे लोग बिक्रेताओं द्वारा डिस्प्ले किये गए नए उत्पादों को देखकर अपने बजट पर ध्यान दिए बिना अतिरिक्त वस्तुओं की खरीद कर लेते हैं। कुछ लोग अपनी आवश्यकता की वस्तु की खरीद करते समय आकर्षक पैकिंग के झांसे में आकर अन्य ब्रांड की अधिक मूल्य की वस्तु खरीद लेते हैं। परिणाम यह होता है कि या तो उनको अन्य मदों में व्यय में कटौती करनी पड़ती है या फिर आय के अन्य स्त्रोत तलाश करने पड़ते हैं।         परिवार के खर्चे का बढ़ता बोझ परिवार के कमाऊ सदस्य के लिए तनाव का कारण बनता है। आय के अन्य स्त्रोतों की तलाश में कोई-कोई तो भृष्ट तरीकों को अपनाने को विवश हो जाते हैं। 
      ऐसे परिवारों के लिए मैं कहना चाहूँगा कि वे स्टोर्स में घुसने से पहले निम्नलिखित एक्सरसाइज अवश्य कर लें।
1. अपनी आवश्यकताओं को अपनी आय के अनुरूप चिन्हित करें।
2. आवश्यक वस्तुओं की उनके ब्रांड के साथ सूची तैयार कर लें। 
      ऐसा करने पर शॉपिंग में लगने वाले समय में कमी आएगी और आपका बजट भी नियंत्रित रहेगा। 
      अक्सर नए कीमती ब्रांड को इंट्रोड्यूस करने के लिए बड़े स्टोर्स पुराने कम मूल्य वाले ब्रांड हटा कर ग्राहकों को कीमती ब्रांड खरीदने के लिए विवश करते हैं। ऐसे में अगर नया ब्रांड आपके बजट के अनुरूप नहीं है तब आप कीमती ब्रांड उस स्टोर से क्रय न करके किसी अन्य दुकान जिस पर पुराना ब्रांड उपलब्ध हो से अपना पुराना ब्रांड क्रय करें। 
      आवश्यक मात्रा से अधिक मात्रा में वस्तुएं क्रय न करें। अगर मंहगाई बढ़ी हो तब पहले तो क्रय की जाने वाली वस्तुओं की सूची से कम आवश्यकता की वस्तुओं को हटाने पर विचार करें। यदि इससे काम न बन रहा हो तब क्रय की जाने वाली वस्तुओं की मात्रा में कटौती पर विचार करें।
     किसी सरकार के वित्त मंत्री द्वारा बनाये गए बजट और घर के लिए गृहणी द्वारा बनाये गए बजट में अंतर होता है। वित्त मंत्री के पास जनता पर अतिरिक्त कर लगाकर अतिरिक्त आय जुटाने का साधन उपलब्ध रहता है किन्तु मध्यम या निम्न वर्गीय परिवारों के पास ऐसा विकल्प उपलब्ध नहीं होता।
      रसोई घर (kitchen) के मामले में हमें "बासी बचे न कुत्ता खाय।" कहाबत ध्यान में रखनी चाहिए। हमें चाहिए कि हम अपनी आवश्यकता का ठीक प्रकार से आकलन कर लें ताकि पकाया हुआ भोजन व्यर्थ न जाय। इसको तैयार करने में लगने वाले मैटेरियल, ईधन, आदि के व्यय में मितव्यता बनी रहे। ऐसा करने पर आपकी व्यक्तिगत बचत के साथ - साथ देश के संसाधनों की भी बचत होगी। देश के लिए यह आपके द्वारा किया गया दान और योगदान होगा। मंहगाई को काबू में रखने के प्रति यह एक सार्थक प्रयास होगा। ऐसा करने से आपका अपना कल्याण होगा और गरीबों पर आपका उपकार होगा।


सांस्कृतिक संक्रमण की काली छाया

मित्रो !
        वैयक्तिक आज़ादी का सभी को हक़ है किन्तु हमें यह भी सोचना होगा कि वैयक्तिक आज़ादी का उपभोग इस तरह नहीं किया जाना चाहिए जिससे किसी अन्य व्यक्ति या समाज के हित प्रतिकूल रूप में प्रभावित हों। समाज के हितों की सुरक्षा का दायित्व भी हमारा है। अगर समाज के हित संरक्षित नहीं रहेंगे तब हम अलग-थलग पड़ जाएंगे और समाज में अराजकता फ़ैल जाएगी।

       मेरा विचार है कि भारतीय संस्कृति मानवीय रिश्तों को मजबूती प्रदान करती है। अतः भारतीय संस्कृति के नैतिक मूल्यों को तिलांजलि देकर सुदृढ़ समाज की रचना नहीं हो सकती। मेरा सुझाव है कि हम अन्य संस्कारों को अपनाते समय अपने संस्कारों को न छोड़ें। इसी पृठभूमि में मैं निम्नलिखित विचार आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ।
       वैलेंटाइन डे, डेटिंग, लिविंग रिलेशनशिप, आदि भारतीय संस्कृति के छाये में विकसित हुए समाज से भिन्न सामाजिक परिवेश में विकसित हुए हैं। मेरा मानना है कि अपने संस्कारों को छोड़कर इनको अपनाने की स्थिति में हमारे समाज में अनेक प्रकार के विकार उत्पन्न हो जाएंगे।


अवगुण कैसे त्यागें

मित्रो !
        किसी भी अवगुण से छुटकारा पाने के लिए ऐसे अवगुण के प्रति अपने अन्दर घृणा का भाव पैदा करना अवगुण से छुटकारा पाने की दिशा में पहला कदम होता है।



शुभ दीपावली

    यह प्रकाश पर्व दीपावली नकारात्मक ऊर्जा का विनाश करे और हम सभी के अन्दर सकारात्मक ऊर्जा का संचार करे। सभी को दीपावली मंगलमय हो !!!


आओ ऐसा इक दीप जलायें

आओ ऐसा इक दीप जलायें।
बहें बयारें शान्ति ज्ञान की,
अन्धकार सब छँट जाए।
फट जाय तिमिर की काली चादर,
जग प्रकाशमय हो जाए।
आए मलयानिल से सुरभित सुगंध,
सौरभ जग में छा जाए।
छलके स्नेह अमिय की गागर,
डगर प्यार की आ जाए।
ऐसा भी एक दीप जले।
आओ ऐसा इक दीप जलाएं।


ईश्वर से याचना

हे ईश्वर !
           हमें ऐसा ज्ञान दो जिससे हम अवगुणों तथा पाप कर्मों को पहचान सकें, हमारे अन्दर उनके प्रति घृणा का भाव उत्पन्न हो; हमें ऐसी शक्ति और सामर्थ्य दो जिससे हम सदगुणों को धारण करें और पाप कर्मों के करने से बचें।




प्राकृतिक संसाधन सभी के

मित्रो !
        परम न्यायी परम पिता यह कैसे कर सकता है कि वह अपनी कुछ सन्तानों को सारे संसाधन दे दे और शेष सन्तानों को संसाधन विहीन रखकर उन्हें साधन सम्पन्न सन्तानों की कृपा पर छोड़ दे।

        ईश्वर निष्पक्ष और न्यायी होने से भेदभाव नहीं करता। गरीब - अमीर, ऊँच - नीच की रचना मानव ने की है। कुछ लोगों को मानव ने ही प्राकृतिक संसाधनों से वंचित रखा है। वंचितों को उनका हक़ मिलना चाहिए।


नियंत्रण

मित्रो !
        लगाम वही कस सकता है जिसके हाथ में लगाम हो। कृष्ण जैसे सारथी और मित्र सभी नहीं होते।



बच्चों के प्रति अपराध चिंता का विषय


मित्रो !
      यों तो बच्चों के प्रति किसी भी प्रकार के अपराध का होना एक चिंता का विषय है किन्तु बच्चों के यौन शोषण सम्बन्धी अपराधों का बढ़ना विशेष चिंता का विषय है। बच्चों का यौन शोषण केवल अपराध ही नहीं उनके प्रति क्रूरता भी है। नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो के द्वारा संकलित किये गए आंकड़ों से प्रकाश में आता है कि वर्ष 2013 की तुलना में वर्ष 2014 में बच्चों के प्रति विभिन्न प्रकार के अपराधों में लगभग 50 प्रतिशत की बृद्धि हुयी है। वर्ष 2013 में जहाँ रिपोर्टेड अपराधों की संख्या 58224 रही थी वही 2014 में यह संख्या बढ़ कर 89423 हो गयी है। संकलित आंकड़ों के अनुसार इनमें से यौन शोषण (Rape and sexual assault) के मामलों की संख्या मामलों की कुल संख्या का लगभग 21.41 प्रतिशत दोनों वर्षों में रही है। यौन अपराधों के बढ़ने की दर 2012 की अपेक्षा 2013 में लगभग 45 % और 2013 की अपेक्षा 2014 में लगभग 55 % रही है। हम सभी जानते हैं कि अनेक कारणों से अपराधों के सभी मामले रिपोर्ट नहीं हो पाते हैं। वास्तविक आंकड़े इनसे कहीं अधिक होंगे। 
    यहाँ पर मेरा उद्देश्य बच्चों के प्रति होने वाले यौन शोषण के मामलों से सम्बंधित आंकड़ों के विश्लेषण करने का नहीं है और न ही मेरा उद्देश्य घटनाओं के प्रकाश में आने के बाद उन पर कार्यवाही की ओर ध्यान आकर्षित करने का है। मेरी चिंता इस बात को लेकर है कि ऐसी घटनाएं न हों इसके लिए क्या कोई उपाय किये जा रहे हैं, यदि उपाय किये जा रहे हैं तब क्या वे पर्याप्त हैं, उन उपायों की जानकारी क्या सभी जनों को पहुंचाई जा रही है। यदि उपाय नहीं किये जा रहे हैं तब क्या उपाय किये जा सकते हैं। ऐसे उपाय कौन सुझाये? 
   लोग चिंतित तो दिख रहे हैं। यह बात समय समय पर विभिन्न लोगों द्वारा दिए गए वक्तब्यों यथा मोबाईल फोन के कारण ऐसे मामले बढ़ रहे हैं, हमारे पहनाबे में बदलाव की बजह से ऐसे मामले बढ़ रहे हैं, आदि-आदि से जाहिर होता है। हो सकता है वे गलत कह रहे हों, हो सकता है उनमें कुछ सच्चाई भी हो किन्तु बिना विश्लेषण किये नकार देना सही नहीं कहा जा सकता है। मेरा मानना है कि इस विषय पर समाज सुधारकों, मनोवैज्ञानिकों और चिंतकों द्वारा उन कारणों का पता लगाया जाना चाहिए जिन कारणों से ऐसे मामलों में बृद्धि हो रही है। उन्हें सुरक्षात्मक उपाय भी सुझाना चाहिए। अविभावकों को ऐसे सुझावों पर कार्यवाही करनी चाहिए। इसी सन्दर्भ में मेरी यह पोस्ट प्रस्तुत है। 
   बच्चों के प्रति होने वाले योन अपराधों के प्रति समाज सुधारक, मनोवैज्ञानिक विश्लेषक और चिंतक चुप क्यों हैं? अगर स्वेच्छा से कोई इस कार्य के लिए आगे नहीं आता तब क्या सरकार का दायित्व नहीं बनता कि वह इस विषय पर ऐसे लोगों की एक कमिटी गठित करे जो वर्तमान परिवेश में कारणों और सुरक्षात्मक उपायों पर रिपोर्ट प्रस्तुत करे।


न्यायिक अपूर्णता


मित्रो !
      हमारी दण्ड प्रक्रिया में कहीं तो कमी है जिसका लाभ उठाकर समाज में कुछ लोग भय का माहौल बनाकर अत्याचार और दुराचार करते रहते हैं। ऐसे लोगों के खिलाफ कोई भी व्यक्ति पुलिस और न्यायालय में जाने का साहस नहीं करता और अगर कोई साहस करता भी है तब गवाही के अभाव में ऐसे लोग बाइज्जत बरी हो जाते हैं।
    ऐसे लोग समाज में अराजकता फैलाते हैं, गरीबों का हक़ मारते हैं, उनके गुर्गे जनता का शोषण करते हैं। दूसरों की संपत्ति पर अवैध कब्जे करते हैं। अवैध कारोबार चलाते या चलवाते हैं। जनता से अवैध उगाही करते हैं।
    अनेक मामलों में ऐसे लोग लोक सभा और विधान सभाओं के चुनाव लड़कर जन प्रतिनिधि बन जाते हैं, अनेक राजनीतिक दल अपनी पार्टी में शामिल कर उन्हें टिकिट देकर लोक सभा या राज्य सभा में पहुंचने में मदद करते हैं। मजे की बात यह है कि विधायक या सांसद बन जाने के बाद वे पेंसन पाने के भी अधिकारी हो जाते हैं।
    ऐसे लोगों से जनता को छुटकारा दिलाने के लिए अब तक किसी कारगर व्यवस्था व्यवस्था का न हो पाना चिंता का विषय है।


सत्य को बैसाखी की आवश्यकता नहीं : Truth Does Not Need Crutches


मित्रो !
        यह विचारणीय है कि असत्य को सत्य ठहराने के लिए असत्य का ढिंढोरा पीटना कहाँ तक उचित है। मेरा विचार है कि -
        असंख्य लोगों के उद्घोष से भी कोई असत्य सत्य नहीं हो जाता। सत्य तो है ही वही जो अस्तित्व में है। सत्य को बैसाखियों की आवश्यकता नहीं होती और असत्य को बैसाखियाँ लगाई ही नहीं जा सकतीं क्योंकि असत्य अस्तिवहीन होता हैं।


Saturday, October 24, 2015

गन्दगी का अहसास


मित्रो !
        गन्दगी चाहे हमारे अन्दर की हो या बाहर की, जब तक हम इसे देख कर या अन्यथा अनुभव करके अपने को असहज (uncomfortable) अनुभव नहीं करते तब तक हमारे अन्दर इससे छुटकारा पाने की इच्छा और इच्छाशक्ति जागृत नहीं होती।


बुराई पर विजय


मित्रो !
        कोई भी व्यक्ति अपने अन्दर या बाहर की बुराई पर तब तक विजय नहीं पा सकता जब तक कि - 1. वह बुराई से अनजान है ; 2. उसके दिल में बुराई के प्रति नफ़रत का भाव नहीं है ; और 3. उसमें बुराई से छुटकारा पाने या बुराई को समाप्त करने के लिए अपेक्षित इच्छाशक्ति तथा सामर्थ्य नहीं है। 
        बुराई से कोई व्यक्ति दो परिस्थितियों में अनभिज्ञ हो सकता है, प्रथम तो यह कि वह यह न जानता हो कि अमुक प्रकार की प्रवृत्ति एक बुराई है दूसरे यह कि वह इस बात से अनभिज्ञ हो कि वह ऐसी प्रवृति का शिकार है अथवा ऐसी प्रवृति अस्तित्व में है। ऐसा होने पर बुराई दूर करने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। अगर व्यक्ति बुराई से अनभिज्ञ नहीं है तब दूसरा प्रश्न यह है कि वह ऐसी प्रवृति के प्रति घृणा का भाव रखता है अथवा नहीं। जब तक उसके अन्दर बुराई के प्रति घृणा का भाव नहीं होगा तब तक उसके अन्दर बुराई से छुटकारा पाने की भावना जन्म नहीं लेगी। 
       घृणा का भाव उत्पन्न होने पर व्यक्ति के अन्दर बुराई से छुटकारा पाने की इच्छा उत्पन्न होगी। इसी से उसमें इच्छाशक्ति विकसित होगी। अनेक बुराइयों के मामले में व्यक्ति की इच्छाशक्ति ही बुराई से छुटकारा दिलाने के लिए आवश्यक सामर्थ्य का कार्य भी करती है।


हर्र लगे न फिटकरी ---


मित्रो !
        हम उन बुराइयों और खराबियों को क्यों न बदल डालें जिनको बदलने के लिए न तो कोई श्रम चाहिए और न कोई संसाधन ही। 
        सोचिये अगर ऐसा हो तो कितना अच्छा हो? हम "हर्र लगे न फिटकरी रंग चोखा आय।" को क्यों न चरितार्थ करें।


निष्पक्ष की आस्था


मित्रो !
        निष्पक्ष रहने के लिए हमारी आस्था किसी व्यक्ति विशेष में न होकर व्यक्तियों के उपलब्ध विकल्पों में से हमारी आवश्यकताओं को पूरा करने वाले सबसे अधिक उपयुक्त व्यक्ति में होनी चाहिए। 
        जहाँ निर्णय देने की बात हो निष्पक्ष रहने के लिए हमारी आस्था किसी पक्ष के प्रति न होकर सर्वोत्तम निर्णय के प्रति होनी चाहिए।


जहाँ ईमानदार न मिले


मित्रो !
         बेईमानों के अन्दर एक श्रेणी डरपोक बेईमानों की भी होती है। डरपोक बेईमान व्यक्ति किसी संभावित अनिष्ट की आशंका से ईमानदारी से कार्य करते हैं। यदि शीर्ष नेतृत्व इच्छुक हो तब किसी पद के लिए ईमानदार न मिलने पर डरपोक बेईमान से ईमानदार का काम लिया जा सकता है।


निष्पक्ष रहकर शर्मिंदगी से बचें


मित्रो !
         निष्पक्ष सोच न रखने वालों की अपेक्षा निष्पक्ष सोच रखने वालों के सामने उनके अपने निर्णयों पर शर्मिन्दा होने के अवसर कम आते हैं।



स्व मूल्यांकन : Self-evaluation


मित्रो !

        स्व चरित्र या किसी व्यवस्था में सुधार करने के इच्छुक व्यक्ति को चाहिए कि वह अपने द्वारा किये गए कृत्यों में आसक्ति त्याग कर कृत्यों के अच्छे या बुरे होने का निष्पक्ष निर्णय स्वयं करे और यदि वह ऐसा करने में सक्षम न हो तब उसे चाहिये कि वह किसी तटस्थ आलोचक का मत जाने।




सत्य कथनों की दो श्रेणियाँ

मित्रो !
         सत्य कथन दो श्रेणियाँ में रखे जा सकते है। एक श्रेणी के अन्तर्गत वे सत्य कथन रखे जा सकते हैं जिन पर समय और परिस्थितयों का कोई प्रभाव नहीं होता, दूसरी श्रेणी के अन्तर्गत वे सत्य कथन रखे जा सकते हैं जिनका सत्य होना समय और परिस्थितयों पर निर्भर होता है। 
        दो और दो मिलकर चार होते हैं। यह ऐसा सत्य कथन है जो अब से पहले भी सत्य था, वर्तमान में भी सत्य है और आने वाले समय में भी सत्य रहेगा। ऐसे सत्य को हम सारभौमिक सत्य मान सकते हैं। दूसरा उदाहरण हम सर्दी से बचने के लिए कम्बल ओढ़ने का लेते हैं। कथन "आजकल कम्बल ओढ़ना हितकर है।", सामान्य परिस्थितयों में सर्दी ऋतु के लिए सत्य कथन है किन्तु यही कथन गर्मी ऋतु के लिए असत्य कथन है। एक और उदहारण पानी की एक खाली टंकी जो पानी से लगातार भर रही है, का लेते हैं। जिस क्षण पर टंकी आधी ऊँचाई तक भरी थी, पूछने पर एक व्यक्ति बताता है कि टंकी आधी भरी है, उस क्षण पर यह कथन कि "टंकी आधी भरी है" सत्य कथन है किन्तु इस क्षण से न तो पूर्व के किसी क्षण पर और न ही इस क्षण के बाद के किसी क्षण के लिए यह कथन कि "टंकी आधी भरी है" सत्य कथन होगा। इन दोनों उदाहरणों में कथन का सत्य होना परिस्थिति और समय पर निर्भर करता है।
       मेरा विचार है कि सारभौमिक सत्य कथनों के अतिरिक्त ऐसे अन्य कथनों जिनका सत्य होना समय और या परिस्थितयों पर निर्भर करता है उनको प्रयोग में लाने से पूर्व उनके सत्य होने पर विचार किया जाना चाहिए।


धर्म-क्षेत्र में परिवर्तनों की गुंजाइश : Scope for Changes in the Field of Religion


मित्रो !

         यहाँ व्यक्त किया गया विचार मेरा निजी विचार है। हो सकता है की मेरा सोचना गलत भी हो किन्तु मानव कल्याण के लिए इस दिशा में सोचना एक आवश्यकता है। इस विचार को प्रकशित करने के पीछे किसी व्यक्ति की धार्मिक भावनाओं को आहत करने का मेरा उद्देश्य नहीं है। फिर भी यदि किसी व्यक्ति की भावनाओं को ठेस पहुंचती है तब मैं इसके लिए क्षमा प्रार्थी हूँ। 
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        मेरे विचार से सनातन धर्म के अनुयायियों के लिए धर्म के दो भाग होते हैं। एक भाग में जीवन के अपरिवर्तनशील शाश्वत मूल्य होते हैं, दूसरे भाग में रीति-रिवाज (customs & traditions) और जीवन शैली होते हैं। मेरा मानना है कि शाश्वत मूल्यों पर प्रभाव डाले बिना मानव जीवन की बेहतरी के लिए दूसरे भाग में किये गए परिवर्तनों से धर्म की हानि नहीं होती। 
        यदि हम लोगों को यह समझा पाने में कामयाब हो जाते हैं तब हम अनेक कुरीतियों से समाज को बचा सकते हैं।


ताकि शर्मिंदा न होना पड़े


मित्रो !
         वर्तमान में सशक्त संचार माध्यमों से किसी देश में घटित हो रही घटनाओं की खबर दुनियाँ के अन्य देशों में पहुंचने में देर नहीं लगती। आज विदेशों में रह-रहे हमारे बच्चे, भाई-बहिन हमारे देश और संस्कृति का प्रतिनिधित्व भी करते हैं। हमें चाहिए कि हम ऐसा कुछ भी न करें जिससे हमारे ऐसे बच्चों, भाई-बहिनों को विदेशियों के सामने शर्मिंदा होना पड़े।


सबसे बड़ा मूर्ख मैं

मित्रो !
         मैं सबसे बड़ा मूर्ख हूँगा यदि मैं समझूँ कि ईश्वर ने मुझे सबसे बड़ा विद्वान और बुद्धिमान बनाया है और जो कुछ मैं करता हूँ उसको और उसके पीछे छिपे मेरे उद्देश्य को समझ पाने की क्षमता और बुद्धिमत्ता किसी और में नहीं है।
मेरा विश्वास है कि मैं जो कुछ लिखता और कहता हूँ, उसको तथा उसके पीछे मेरे उद्देश्य और मेरी भावना को मेरे मित्र अवश्य समझते हैं क्योंकि ईश्वर ने उन्हें मुझसे अधिक विद्वान और बुद्धिमान बनाया है। 
         लेकिन अगर कोई और अपने बारे में ऐसा समझता है कि ईश्वर ने उसे सबसे बड़ा विद्वान और बुद्धिमान बनाया है और जो कुछ वह करता है उसको और उसके पीछे छिपे उसके उद्देश्य को समझ पाने की क्षमता और बुद्धिमत्ता किसी और में नहीं है तब इससे मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं है। दुनियाँ जौं - जौं अगरी है।




मारि-मूरि मैरा बैठाये तौ का हुर्र भई

मित्रो ! 
         खेतों में कुछ फसलें मक्का, ज्वार, बाजरा आदि जब पकने के करीब खड़ीं होतीं हैं अथवा फलों के बगीचे में आम, अमरूद आदि के पेड़ों पर फल लगे होते हैं तब कुछ पक्षी उन्हें खाने आ जाते हैं । पक्षियों को भगाने (उड़ाने) के लिए खेत या बगीचे में जमीन से 8-10 फीट ऊँचाई पर एक मचान (मंच) बना दिया जाता है। उस मचान पर एक व्यक्ति गुलेल (2-3 इंच लम्बी और लगभग 2 इंच चौड़ी रस्सी से बनी जाली में लम्बाई के अंत में दोनों और एक - एक मीटर लम्बी डोरी बाँध कर बनाई गयी गुलेल) लेकर बैठ जाता है। वह थोड़े-थोड़े समय बाद गुलेल से छोटे-छोटे ईंट या गिट्टी पत्थर के छर्रे पौधों के ऊपर फेकता हुआ मुंह से हुर्र की अबाज निकालता है। यदि खेत या बगीचे में पौधों पर कोई पक्षी होते हैं तब वे उड़ जाते हैं। इससे फसल का नुकसान नहीं होता।
इसी से सम्बंधित कहाबत है "मारि-मूरि मैरा बैठाये तौ का हुर्र भई।"
(मारि-मूरि =पिटाई करके अर्थात जोर जबरदस्ती करके); मैरा = मचान; बैठाये = बैठा देने से; तौ = तो; का = क्या; हुर्र = हुर्र - हुर्र की आबाज; भई = हुई।
अर्थ यह है की अगर कोई व्यक्ति मचान (मैरा) पर बैठ कर पक्षी भगाने का कार्य करने का इच्छुक न हो और उसको मजबूर करके मचान पर बैठा दिया जाय तब यह जरूरी नहीं कि वह पक्षी भगाए ही। कहने का तात्पर्य यह है कि अगर किसी व्यक्ति पर कोई ऐसा कार्य करने के लिए दबाव बनाया जाय जिसको करने का वह इच्छुक न हो तब ऐसा व्यक्ति ऐसा कार्य या तो करेगा नहीं या फिर अनमने ढंग से आधा-अधूरा ही करेगा।



सीसीटीवी की निगरानी में

मित्रो ! 
        वैश्वीकरण के दौर में कम से कम बड़े देशों के बारे में यह सोचना गलत होगा कि उनमें से प्रत्येक देश एक दूसरे के यहाँ हो रही राजनैतिक उठा-पटक, अमानवीय घटनाओं और ऐसे अन्य परिवर्तनों जिनमें उनकी रूचि हो सकती है पर नज़र नहीं रख रहे हैं।
        मेरा मानना है कि किसी देश को यह मानकर नहीं चलना चाहिए कि वह दूसरे देश को जो कुछ दिखाए या बताएगा उतना ही वह देश देखेगा और बिना जाँचे परखे उस पर विश्वास कर लेगा।