Friday, November 21, 2014

समयनिष्ठा : Punctuality

         जीवन में अनेक कार्य हमें निश्चित समय पर पूरे करने होते हैं। हमें दैनिक जीवन में अनेक प्रयजनों से प्रायः किसी स्थान पर पूर्व निर्धारित समय पर पहुंचना होता है। निर्धारित समय पर कार्य पूरा न करने अथवा निर्धारित समय पर गंतव्य पर न पहुंचने से हमें अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है। विलम्ब के अनेक संभावित अज्ञात कारणों के अतिरिक्त एक मूल कारण यह भी हो सकता है कि हम भूल जाएँ कि : -
        किसी भी गंतव्य पर पूर्व निर्धारित समय पर पहुँचने के लिए यात्रा प्रारम्भ किये जाने के समय का पूर्व निर्धारण किया जाना और ऐसे निर्धारित समय पर यात्रा प्रारम्भ किया जाना आवश्यक होता है। यात्रा प्रारम्भ करने के समय का निर्धारण करते समय हमें उन कारणों का भी ध्यान रखना होता है जो यात्रा समय पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकते हैं। जहां यात्रा प्रारम्भ करने का समय किसी पूर्व-वर्ती कार्य के समाप्त होने पर निर्भर करता है वहां पूर्व-वर्ती कार्य के समाप्त होने का समय भी निर्धारित किया जाना आवश्यक होता है। किसी कार्य के पूर्व निर्धारित समय पर पूरा किये जाने के मामले में भी यही सब लागू होता है।
        यहां पर मैं अपने को स्पष्ट करने के लिए आपका परिचय एक काल्पनिक करेक्टर "मिस्टर एक्स" से करा रहा हूँ। 
1. मिस्टर एक्स जिस दिन वह अपने विद्यार्थी जीवन की आखिरी परीक्षा दे रहे थे उस दिन परीक्षा सुरू होने के 25 मिनट बाद परीक्षा केंद्र पर पहुंचे। तीन घंटे की जगह ढाई घंटे ही मिले। परिणाम यह हुआ कि 6 प्रश्नों की जगह 5 प्रश्नों का ही उत्तर लिख सके। परिणाम यह हुआ कि 5 अंकों के कम रह जाने से प्रथम श्रेणी की जगह द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हुए।
2. मिस्टर एक्स को एक प्राइवेट जॉब के लिए साक्षात्कार का बुलावा मिला। उस दिन दुर्भाग्य से मिस्टर एक्स को समय पर टैक्सी नहीं मिली और समय से न पहुँचने पर इंटरव्यू नहीं दे सके। 
3. मिस्टर एक्स ने नौकरी के लिए प्रतियोगिता परीक्षा का आवेदन पात्र भरा किन्तु परीक्षा वाले दिन रास्ते पर लम्बा जाम लगे होने के कारन परीक्षा केंद्र पर डेढ़ घंटे देर से पहुंचे। परीक्षा शर्तों के अनुसार वे परीक्षा नहीं दे सके। अगले वर्ष पुनः परीक्षा देने का निर्णय लिया।
4. मिस्टर एक्स अगले वर्ष प्रतियोगिता परीक्षा में बैठे और नौकरी भी पा गए। किन्तु शायद ही कोई दिन हो जिस दिन वे समय पर कार्यालय पहुंचते हों। एक दिन उच्चाधिकारी ने आकश्मिक निरीक्षण प्रातः 10:30 बजे किया। मिस्टर एक्स अनुपस्थित मिले। इस पर उच्चाधिकारी ने चेतावनी दे दी कि अगर ऐसा ही रहा तब उन्हें समयनिष्ठा के विन्दु पर प्रतिकूल प्रवृष्टि दे दी जायेगी। 
5. मिस्टर एक्स कार्यालय देर से पहुँचाने का दोष पत्नी पर मढ़ देते हैं कि उनके ब्रेकफास्ट या लंच बॉक्स देर से देने से वे कार्यालय के लिए लेट हो जाते हैं। इससे घर का माहौल ख़राब रहने लगा है। 
6. मिस्टर एक्स ने बच्चों की गर्मियों की छुट्टी में उनको हिल स्टेशन ले जाने का प्रोग्राम बनाया। रेलवे से आरक्षण भी करवाया किन्तु जिस दिन जाना था, रेलवे स्टेशन पर जब पहुंचे ट्रेन जा चुकी थी। प्रोग्राम रद्द करना पड़ा। बच्चे भी उनसे खिन्न रहने लगे हैं।

        अन्य लोगों के साथ भी ऐसा हो सकता है। उनके न चाहते हुए भी विलम्ब होता हो। इसका कारण क्या हो सकता है। हो सकता है कि इस बीमारी से छुटकारा पाने का आपका कोई अन्य सुझाव हो किन्तु मैं जो कुछ सोच पाया हूँ वह यह है :
किसी कार्य को समय पर पूरा किये जाने के लिए उस कार्य का समय पर शुरू किया जाना भी आवश्यक होता है।

While Presenting God Idols

मित्रो !
        जो व्यक्ति ईश्वर में विश्वास रखता है और जिसने यह जान लिया है कि ईश्वर एक है और वह सर्वत्र है उसके लिए ईश्वर को स्मरण करने के लिए ईश्वर के चित्रों, मूर्तियों और देवालयों की आवश्यकता नहीं रह जाती। ऐसे व्यक्ति के लिए उसका ईश्वर देखी और न देखी जा सकने वाली प्रत्येक मूर्त और अमूर्त वस्तु में होता है। हमें ऐसे व्यक्ति को ईश्वर का कोई चित्र या मूर्ति उपहार में देकर उस व्यक्ति की ईश्वर के प्रति आस्था और ज्ञान को सीमित नहीं करना चाहिए।

उपहार : GIFT

मित्रो !
        यदि कोई ऐसी वस्तु, जो रख-रखाव चाहती है और उसके रख-रखाव में अथवा उपयोग करने में खर्च आता है, आप अपने किसी मित्र या किसी स्नेही जन को उपहार में देना चाहते हैं और आप चाहते हैं कि आपका ऐसा मित्र या स्नेही जन ऐसी वस्तु का स्वयं उपयोग करे तब इस बात पर विचार कर लें कि क्या आपका ऐसा मित्र या स्नेही जन उपहार में प्राप्त होने वाली वस्तु के रख-रखाव में अथवा उपयोग किये जाने की स्थिति में उपयोग करने पर आने वाले व्यय को अतिरिक्त व्यय के रूप में वहन करने में सक्षम है या नहीं। यदि ऐसा व्यक्ति अतिरिक्त व्यय वहन करने में सक्षम नहीं है तब मेरे विचार से हमें अपने मित्र या किसी स्नेही जन को ऐसी वस्तु उपहार में नहीं देनी चाहिए।

कृतज्ञता : Gratitude

मित्रो !
        जब कोई व्यक्ति हमारी सहायता करता है अथवा कोई वस्तु हमें उपहार में देता है तब हमारे अंदर उसके प्रति आदर की भावना उत्पन्न हो जाती है। इस भावना को प्रकट करने के लिए हम धन्यवाद (Thanks), हम आपके आभारी हैं, हम आपके कृतज्ञ हैं, I am obliged, I am thankful to you, I am grateful to you आदि शब्दों को कहते हुए उस व्यक्ति के प्रति आभार जताते हैं। आभार व्यक्त करते समय हमारे अंदर विनम्रता का भाव होता है।
       आभार व्यक्त करना सकारात्मक सोच और हमारी आशावादी दृष्टिकोण का परिचायक है। जो लोग आभार व्यक्त नहीं करते उन लोगों की अपेक्षा आभार व्यक्त करने वाले लोग अधिक खुश रहते हैं तथा उन्हें सामाजिक समर्थन और प्रतिष्ठा अधिक प्राप्त होती है। आभार प्रदर्शन से हम गुडविल भी कमाते है (We earn goodwill by expressing gratitude)। आभार प्रकट करने वाले लोगों में तनाव और अवसाद का स्तर निम्न होता है। इसके विपरीत आभार प्रकट न करने वाले व्यक्तियों में तनाव और अवसाद का स्तर उच्च होता है। मेरा मानना हैं कि आभार प्रकट करने का प्रभाव हमारे स्वास्थ्य, हमारी गुडविल, हमारी सोच और हमारी सामाजिक प्रतिष्ठा पर भी होता है।
       स्पष्ट है कि आभार व्यक्त करने की अवधारणा हमारे जीवन में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। हमें इसका अधिकाधिक प्रयोग करना चाहिए। हमें प्रत्येक ऐसे अवसर को पहचानना चाहिए जिस पर हम आभार का प्रदर्शन कर सकते हैं। यह देखा गया है कि कुछ लोग किसी वस्तु का क्रय करने के उपरांत विक्रेता के अच्छे व्यवहार के लिए उसे धन्यवाद या Thank you कहते हैं। यह एक स्वस्थ परंपरा है। परिवार के सदस्य विशेष रूप से बच्चे जब भी कोई वस्तु हमें लाकर दें तब हमें उन्हें धन्यवाद (Thank you) कहना नहीं भूलना चाहिए। इससे उनमें भी इस आभार व्यक्त करने की स्वस्थ परंपरा का विकास होता है साथ ही वे यह भी अनुभव करते हैं कि उनके बड़े उन्हें बहुत प्यार करते हैं।

      मैं अनुगृहीत हूँगा यदि मेरे ऐसे मित्र जो अब तक कृतज्ञता व्यक्त करने के विचार से अनभिज्ञ थे भी आभार व्यक्त करने की परम्परा को अपना कर इसका लाभ उठायेंगे।


आशावाद और सकारात्मक सोच : Optimism and Positive Thinking

मित्रो !
         मैंने अपने पूर्व आर्टिकल में सकारात्मक सोच (positive thinking) पर चर्चा प्रारम्भ की थी। उसी आर्टिकल के क्रम में मैं यह आर्टिकल प्रस्तुत कर रहा हूँ।
        आशावाद (optimism) और सकारात्मक सोच (positive thinking) दो अलग-अलग धारणाएं हैं। आशावाद "सब कुछ ठीक होगा, हर समस्या का एक समाधान होता है।" पर विश्वास करने की प्रवृति है। किसी कार्य के संपन्न करने की पद्यति और कार्य के संपादन के दौरान आने वाली समस्यायों के सम्बन्ध में आशावादी व्यक्ति के मष्तिष्क में कोई विचार उत्पन्न नहीं होता। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि आशावादी व्यक्ति यह नहीं सोचता कि कोई कार्य किस प्रकार पूरा होगा किन्तु फिर भी उसका विश्वास होता है कि कार्य पूरा हो जायेगा। आशावाद में अनुकूल परिणाम का विचार केवल धारणा पर आधारित होता है। यह धारणा गलत भी हो सकती है और सही भी हो सकती है। 
       आशावादी सोच के विपरीत निराशावादी सोच ऐसी सोच है जिसमें मनुष्य के अंदर यह धारणा घर कर जाती है कि वह किसी कार्य विशेष को करने में सफल नहीं होगा। जब किसी निराशावादी व्यक्ति के साथ कोई अप्रिय घटना होती है या किसी मामले में अनुकूल परिणाम नहीं आता है तब वह इसके लिए अपने को दोषी मानता है, वह सोचता है कि उसके साथ हमेशा ऐसा ही होगा और यह उसके जीवन के सभी पहलुओं को प्रभावित करेगा। विपरीत इसके यदि किसी आशावादी सोच रखने वाले व्यक्ति के साथ कोई अप्रिय घटना होती है या किसी मामले में अनुकूल परिणाम नहीं आता है तब वह इसके लिए अपने को उत्तरदायी न मान कर इसके पीछे वाह्य कारणों को उत्तरदायी मानता है, प्रतिकूल प्रभाव को स्थायी नहीं मानता। यह मानता है कि ऐसा उसके साथ सदैव होने वाला नहीं है। वह जीवन पर इसका प्रभाव अल्प और सीमित मानता है। 
        आशावाद और निराशावाद को समझने के लिए मैं एक उदहारण अपने व्यक्तिगत जीवन से देना चाहूँगा। 1969-70 शिक्षा सत्र में मैंने एम. एससी. अंतिमवर्ष में अध्ययन किया और मार्च 1970 में परीक्षा दी । इसी वर्ष मैंने जुलाई से मार्च तक 5 इंटरमीडिएट के छात्रों को प्रत्येक दिन 3 घंटे पढ़ाया और इसी वर्ष दिसंबर 69-जनवरी 70 में UPPCS (उत्तर प्रदेश संयुक्त राज्य सेवा) की मुख्य परीक्षा दी। जाहिर है कि अन्य छात्रों की तुलना में मुझे एम. एससी. की पढ़ाई के लिए कम समय मिला। मेरे पड़ौस में मेरी कक्षा का ही एक अन्य छात्र रहता था। पढ़ने में अच्छा था। एम. एससी. परीक्षा शुरू होने से पहले हम दोनों सभी प्रश्न-पत्रों में मिलाकर कुल ६० प्रतिशत से अधिक अंक लाने का लक्ष्य बनाकर चल रहे थे। कुल चार प्रश्न-पत्र प्रत्येक 100 अंक के होने थे। परीक्षा शिड्यूल के अनुसार प्रथम और द्वितीय प्रश्न-पत्रों के मध्य 2 दिन का अंतराल, द्वितीय और तृतीय प्रश्न-पत्रों के मध्य 4 दिन का अन्तराल और तृतीय और चतुर्थ प्रश्न-पत्रों के मध्य 16 दिन का अंतराल था। दो प्रश्न-पत्र होने पर हम दोनों ने पाया कि हम दोनों के ही दोनों प्रश्न-पत्रों में से प्रत्येक में 50-55 के बीच ही अंक आ सकते थे। मैंने उस लडके से कहा चलो हुआ सो हो गया वाकी पेपर्स में हम कोशिश करेंगे कि इन दो पेपर्स में आयी कमी भी पूरी हो जाय और मुझे उम्मीद है कि हम कमी पूरी कर लेंगे। इस पर मेरे साथी ने कहा "हमें मालूम है कि वाकी पेपर्स में भी मेरे साथ यही होगा। हमारे मेरे साथ ऐसा ही होता है। कुछ नहीं बदलेगा। जिंदगी भर सेकेण्ड क्लास की डिग्री लिए बेरोज़गार फिरता रहेगा। कोई नौकरी नहीं देगा।" मैंने बहुत समझाने का प्रयास किया पर वह नहीं माना। मैंने उससे यह भी कहा कि पेपर्स के बीच में 20 दिनों की छुटियाँ हैं उनमें तैयारी की जा सकती थी। इस पर उसने अपनी प्रतिक्रिया दी कि जब साल भर पढ़ने से कुछ नहीं हुआ तब 20 दिन में क्या हो जायेगा। उसकी सोच का प्रभाव यह हुआ कि वह हर समय सुस्त रहने लगा। उसका मन पढ़ने में भी नहीं लगने लगा। मैंने छुटियों का उपयोग पढ़ने में किया। तृतीय प्रश्न-पत्र होने पर उसमें 70 अंक आने की संभावना ने मेरी आशा को और वल दिया। चतुर्थ प्रश्न-पत्र देकर जब मैं परीक्षा कक्ष से निकला तब मुझे पूरा विश्वास था कि मेरे सभी पेपर्स में मिलाकर 60 प्रतिशत से अधिक अंक आएंगे। इसका कारण यह रहा था कि मेरा चतुर्थ प्रश्न-पत्र बहुत अच्छा हुआ था और उसमें मुझे कम से कम ९० अंक प्राप्त होने की आशा थी। परीक्षा परिणाम आने पर मेरा साथी द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ। मैंने अपने बारे में जैसा सोचा था उसी प्रकार अंक मिले, चतुर्थ पेपर में 90 अंक मिले और मैं प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ। यहां पर हम देखें तब पाते हैं कि दो पेपर्स देने के बाद जो कुछ मेरे सहपाठी ने कहा वह सब निराशावादी दृष्टिकोण था। जो कुछ मैंने कहा वह आशावादी दृष्टिकोण था। 
       यहां पर एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह उठता है कि क्या आशावादी या निराशावादी व्यक्ति की सोच का प्रभाव ऐसे व्यक्ति के स्वास्थ्य पर भी पड़ता है। मेरा मानना है कि आशावादी सोच रखने वाले व्यक्ति का स्वास्थ्य अच्छा रहता है वह असफलता मिलने पर उसका अस्थायी और सीमित प्रभाव अनुभव कर तनाव या अवसाद का शिकार नहीं होता जबकि निराशावादी सोच रखने वाला व्यक्ति किसी अप्रिय घटना के घटित होने या किसी प्रतिकूल परिणाम के आने पर तनाव और अवसाद का शिकार हो जाता है।
      जहां तक सकारात्मक सोच के सम्बन्ध में है सकारात्मक सोच के अंतर्गत हम यह मान कर चलते हैं कि कार्य के करने में समस्याएं आ सकतीं हैं और उनका निदान स्वतः नहीं होगा। सकारात्मक सोच समस्यायों पर विचार कर उसका समाधान खोजती है। सकारात्मक सोच रखने वाले व्यक्ति के मन में समस्यायों का विचार आने पर वह कार्य न करने का निर्णय न लेकर समस्याओं का समाधान खोजने पर विचार करता है। वह इस विचार को लेकर आगे बढ़ता है कि प्रत्येक समस्या का एक समाधान होता है। नकारात्मक सोच रखने वाला व्यक्ति असफलता के भय से या तो कार्य प्रारम्भ ही नहीं करता अथवा कार्य प्रारम्भ करने के बाद कार्य करने के दौरान कोई समस्या या कठिनाई आने पर कार्य बीच में ही छोड़ देता है। इसका मुख्य कारण है कि सकारात्मक सोच रखने वाले व्यक्ति को उसका शरीर तंत्र प्रारम्भ ही में आवश्यक ऊर्जा दे देता है। ऐसे लोग समस्याओं और कठिनाइयों का सामना करने के लिए मानसिक रूप से तैयार होते हैं। विपरीत इसके नकारात्मक सोच रखने वाले व्यक्ति मानसिक रूप से तैयार न होने के कारण उनके अंदर आवश्यक ऊर्जा का अभाव होता है। इसी कारण नकारात्मक सोच वाले व्यक्ति कार्य अनमने (half heartedly) ढंग से प्रारम्भ करते हैं और समस्या या कठिनाई आने पर बड़ी जल्दी इस निष्कर्ष पर पहुँच जाते हैं कि उनसे यह कार्र्य नहीं होगा।
      सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ हम सुखद और अच्छी भावनाओं का अनुभव करते हैं। ऐसी सोच आंखों में चमक, शरीर में अधिक ऊर्जा और खुशी लाती है। हमारे स्वास्थ्य को अनुकूल रूप में लाभदायक तरीके से प्रभावित करती है। हमारे शरीर की भाषा बदल जाती है और हम गर्व के साथ अपना सीना तान कर विजयी मुद्रा में चलते हैं।
आशावादी दृष्टिकोण के आचरण से हमारे शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली में सुधार आता है, यह पुरानी बीमारी को रोकने में सहायक की भूमिका निभाता है और हमें अशुभ को सहन करने की शक्ति प्रदान करता है।

सकारात्मक सोच : Positive Thinking

मित्रो।
          हम सदैव वकालत करते हैं कि हमें सकारात्मक सोच (Positive thinking) रखनी चाहिए। कुछ लोग स्वभाव से ही सकारात्मक सोच के धनी होते हैं किन्तु अन्य लोगों द्वारा इसे अभ्यास द्वारा विकसित किया जा सकता है। इसको विकसित तभी किया जा सकता है जब हमें ज्ञात हो कि सकारात्मक सोच क्या है। मेरे विचार से -
         सकारात्मक सोच सकारात्मक परिणाम (positive result) की आशा से ओत-प्रोत एक मानसिक और भावनात्मक रवैया (attitude) है जो जीवन के उज्ज्वल पक्ष पर केंद्रित होता है। 
        सकारात्मक सोच रखने वाले व्यक्ति को विश्वास होता है कि वह अपने रास्ते में आने वाली सभी बाधाओं और कठिनाइयों पर विजय पा लेगा। ऐसा व्यक्ति अपने मन में उठने वाली किसी भी आशंका को दृढ़तापूर्वक नकार देता है।

ईश्वर : एक सोच

         कितना विरोधाभाष है कि कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि ईश्वर जैसा कुछ भी नहीं है किन्तु ऐसा मानने के बाद भी ईश्वर को कोसते हैं और उसे बुरा-भला कहते हैं। क्या ऐसे लोग दया के पात्र नहीं हैं?

Friday, November 7, 2014

ईश्वर के सामने मेरी हठधर्मिता : My Stubbornness Before God

      मुझे याद नहीं पड़ता है कि मैंने अपने जीवन में कभी अपने माँ-वाप या किसी अन्य परिवारीय सदस्य या अन्य व्यक्ति के सामने अपनी किसी बात को मनवाने की जिद की हो किन्तु मैंने दो अवसरों पर ईश्वर से अपनी जिद मनवाने का प्रयास अवश्य किया है और इन दोनों अवसरों पर ईश्वर से मैं अपनी बात मनवाने में सफल हुआ हूँ। इनमें से एक अवसर उस समय आया जब मैं एम. एससी. (प्रथम वर्ष) का विद्यार्थी था, दूसरा अवसर मेरे सेवाकाल में आया जब मैं उत्तर प्रदेश बिक्री कर विभाग (सम्प्रति उत्तर प्रदेश कोमर्सिअल टैक्स डिपार्टमेंट) में एक जिले में बिक्रीकर अधिकारी (सम्प्रति असिस्टेंट कमिशनर, कोमर्सिअल टैक्स) के पद पर तैनात था। यहां पर मैं पहले अवसर पर अपने द्वारा की गयी जिद का उल्लेख करूँगा। अवसर मिलने पर दूसरे अवसर का उल्लेख बाद में अलग से करूँगा।
      मैं जुलाई १९६९ में आगरा विश्व विद्यालय के एक पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज में एम. एससी प्रथम वर्ष में प्रवेश लेने गया। मैं कॉलेज ऑफिस के फॉर्म वितरण काउंटर से एडमीशन फॉर्म प्राप्त कर रहा था उसी समय वहां पर एक लड़का आ गया जिसका नाम कैलाश सिंह था। उसका बचपन का नाम भोला था। यह लड़का मुझसे पूर्व से ही परिचित था। इस लडके से मेरी मुलाकात दो वर्ष पूर्व हुयी थी जब वह इंटरमीडिएट प्रथम वर्ष का छात्र था। मैं उसके परिवार के सदस्यों और परिवार की आर्थिक स्थिति से पूर्व से ही परिचित था। उसके परिवार की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि बच्चों को उच्च शिक्षा दिला सकें। जब मैं इस लडके से प्रथम वार मिला था तब मैंने उसके परिवार की आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखकर उससे कह दिया था कि वह इंटरमीडिएट पास कर ले, आगे बी. ए. और फिर बी. एड. करने में मैं उसकी मदद करूँगा। बी. एड. कर लेने पर कहीं उसे शिक्षक की नौकरी मिल जाएगी। एडमीशन फॉर्म वितरण काउंटर पर उस लडके को देखकर मेरे द्वारा उससे दो वर्ष पूर्व कही गयी बातें याद आ गयीं। मुझे कुछ शर्मिंदगी भी महसूस हुयी क्योंकि मैं अपने द्वारा कही गयी गयी बातों को भूल गया था। मेरे पूछने पर उसने बताया कि उसने बी. ए. प्रथम वर्ष में उसी कॉलेज में एडमीशन ले लिया है। उसने बताया कि उस समय वह अस्थायी रूप से तीन किलोमीटर दूर स्थित एक गाँव में अपने एक दूर के रिस्तेदार के यहां रुका हुआ था। लेकिन वहां स्थायी रूप से नहीं रह सकता था। मैंने स्वयं एडमीशन लेने तक उससे रुकने को कहा। मैंने अपना एडमीशन फॉर्म भरकर कॉलेज प्रिंसिपल से आदेश करवा कर शुल्क के साथ फॉर्म एडमीशन काउंटर पर जमा कर दिया।
      मेरी योजना उसी शहर में किराये पर एक कमरे के सेट जिसके साथ एक किचिन भी हो लेकर अपनी शिक्षा पूरी करने की थी। सेल्फ कुकिंग करनी थी। यद्यपि हॉस्टल और स्टूडेंट कैंटीन उपलब्ध थे किन्तु उतना व्यय मैं स्वयं वहां नहीं कर सकता था। मैंने उस लडके को योजना बतायी और उसे साथ लेकर अकोमोडेसन की तलाश में निकल पड़ा। संयोग से दो घंटे की तलाश के बाद एक रिहायसी मकान के बाहरी हिस्से में एक बड़ा कमर और उससे लगा हुआ बात रूम और किचिन मिल गया। बाजार से कुछ जरूरी सामान खरीद कर कमरे पर रख दिया और उस कमरे के ताले की चाबी उस लडके को देकर मैं अपना जरूरी सामान लेने अपने घर चला गया। दो-तीन दिन में मैं अपना सामान लाकर उस लडके के साथ उसी कमरे में रहने लगा। मैंने उस लडके को आस्वस्त कर दिया कि खर्चे के बारे में उसे चिंता करने की जरूरत नहीं है। किन्तु वह भी मेरी आर्थिक स्थिति को जानता था। इसी बीच एक घटना और घटी। एक छात्र ने इलाहबाद यूनिवर्सिटी में उसी वर्ष एडमीशन लिया था किन्तु एक माह बाद उसने यूनिवर्सिटी किन्ही कारणों से छोड़ दी। कारण शायद हॉस्टल में रैगिंग का रहा था। उस लडके के पिता जी मुझे जानते थे। वह उस लडके को लेकर मेरे पास आ गए और उसी कॉलेज जिस में मैं पढ़ता था एडमीशन कराने और अपने साथ रखने को कहा। मैं मन नहीं कर सका। यह लड़का मध्यम वर्गीय परिवार से था और अपना खर्च खुद वहन कर सकता था किन्तु बड़ा होने के नाते मैंने रहने और खाने का खर्च करने से मना कर दिया। इस पर वह अपने घर से फूडग्रेन्स और दालें आदि ले आया। इसके लिए मैंने उससे मना नहीं किया। इसके लिए मैंने उससे मना नहीं किया।
      पहला लड़का, कैलाश सिंह, जिसका बचपन का नाम भोला था मेरी अार्थिक स्थिति को लेकर चिंतित रहता था। एक दिन उसने कहा की मैं इंटरमीडिएट के छात्रों को फिजिक्स और गणित अच्छी तरह से पढ़ा सकता हूँ। मेरे हाँ कहने पर उसने कहा कि उसकी पहचान का एक लड़का है वह पढ़ना चाहता है किन्तु प्रचलित दरों पर फीस नहीं दे सकेगा। मैंने भोला से कहा कि वह उस लडके को पढ़ने के लिए आने को कह दे। लड़का पढ़ने आने लगा। एक माह बाद उसने मुझे शुल्क के रूप में बीस रूपया देकर पाँव छुए और बोला गुरु जी पिता जी अधिक देने में कठिनाई होगी। मैंने उससे कहा अगर आर्थिक कठिनाई है तब वह उसे भी वापस ले जाए किन्तु पढ़ना न छोड़े। उसने कहा इतना देने में कोई कठिनाई नहीं है। उन दिनों कोचिंग देने वाले शिक्षक प्रतिदिन एक विषय को एक घंटे पढ़ाने का शुल्क साठ रूपया लेते थे किन्तु मैं तो शिक्षक न होकर एक स्टूडेंट ही था। लगभग 8-10 दिन बाद उस लडके ने मुझे बताया की उसकी क्लास के कुछ और लडके भी पढ़ना चाहते हैं किन्तु वे कुछ दिन मेरे साथ बैठकर देखेंगे तब निर्णय लेंगे। मैंने अनुमति दे दी। तीन अन्य लडके आकर उस लडके के साथ बैठकर पढ़े और उसके बाद उन्होंने नियमित रूप से पढ़ने की इच्छा जताई। फीस की बात पूछने पर मैंने उनसे कह दिया कि मैं शिक्षा का व्यापार नहीं करता। उनकी जो भी श्रद्धा हो वह कर लें।
      वह सभी लडके पढ़ने के लिए आने लगे। मैं उन्हें इंटरमीडिएट का गणित और फिजिक्स पढ़ता था। एक अन्य लड़का भी आने लगा। एक माह पूरा होने पर चार लड़कों में से प्रत्येक ने 60 रूपया तथा सबसे पहले आने वाले लडके ने बीस रूपया का भुगतान किया। मेरे लिए यह पर्याप्त से अधिक था क्योंकि उन दिनों इतनी मंहगाई नहीं थी। कॉलेज फीस भी चौदह से बीस रूपया प्रति माह थी। दो महीने और गुजर चुके थे। लडके फीस का भुगतान अपनी सुविधानुसार करते थे। कुछ लड़कों ने गत दो महीनों का भुगतान नहीं किया था। इस दौरान स्थान की कमी महसूस हुयी। यह भी था कि पास-पड़ोस के बच्चे शोर-गुल के साथ शाम को जिस समय लडके पढ़ रहे होते थे खेलते थे। इससे पढ़ने में व्यवधान होता था। दूसरे अकोमोडेसन की तलाश की गयी। संयोगवश एक बड़े मकान में दो बड़े कमरे, बाथरूम और किचिन मिल गए। इस मकान के तीन अन्य कमरों में भी पढ़ने वाले लडके रहते थे। मकान के प्रथम तल पर भवन स्वामी का परिवार रहता था। यहां पर शोर-गुल की समस्या नहीं थी। यहां पर मुझे एक स्वतंत्र रूप से बड़ा रूम मिल गया था।
      नवम्बर का आधा महीना पूरा हो चुका था, सर्दी पड़ने लगी थी। हम सभी के पास रजाई या कम्बल उपलब्ध थे। किन्तु मेरे सामने एक नयी समस्या आ गयी। मुझे ज्ञात हुआ जो लडके उस मकान में पहले से रह रहे थे उनमें से एक बी. एससी. (प्रथम वर्ष) का छात्र ग्रामीण क्षेत्र के अत्यंत गरीब परिवार का था। वस्तु स्थिति यह थी कि दो अंडर वियर के अलावा अन्य पहनने वाले वस्त्र एक-एक ही थे। तौलिये के नाम पर एक अंगौछा था। विस्तर के नाम पर एक पुरानी दरी और एक चादर थी। फीस भी समय से नहीं चुका पाता था। खाने के लिए आंटा-दाल गाँव से ले आता था। अन्य सामिग्री खाना बनाने के लिए अन्य छात्र दे देते थे। मैं यह सोचकर चिंता में पड़ गया कि सहायता kaise की जाय। एक परेशानी यह थी कि कुछ स्टूडेंट्स ने पिछले दो-दो महीने का भुगतान नहीं किया था। दूसरी बड़ी चिंता यह भी थी कि गरीबों का भी अपना स्वाभिमान होता है। ऐसे में न जाने मेरे द्वारा की जाने वाली आर्थिक मदद वह छात्र स्वीकार करेगा भी या नहीं। मैंने अपना कर्तव्य याद किया और प्रयास करने में कुछ गलत नहीं समझा। लेकिन धनराशि जुटाने की समस्या अब भी थी। स्वभाव वश मैं छात्रों से ट्यूशन फीस मांग नहीं सकता था। मैंने इस स्तर पर अपने को परेशानी में पाया। मैंने ईश्वर को याद किया उससे मदद माँगी और एक प्रण ले लिया कि जब तक मैं उस छात्र को पूरा विस्तर और पहनने के दो-दो सेट कपडे नहीं दिलवा देता तब तक मैं स्वयं कम्बल या रजाई का प्रयोग नहीं करूंगा। मेरे साथ के दोनों लड़कों ने नोटिस किया कि मैं सर्दी से बचने के लिए कम्बल का प्रयोग नहीं कर रहा हूँ। उन्होंने मुझसे पूंछा भी पर मैंने कह दिया कि मुझे सर्दी ही नहीं लगती।
      यह मेरी हठधर्मिता थी। मेरी शिकायत ईश्वर से थी। ईश्वर को भला कोई प्राणी क्या कह सकता है फिर भी मैंने कहने की हिम्मत की थी कि कि मैं तब तक सर्दी में अपने को कष्ट देता रहूंगा जब तक कि मेरी उस लडके को वस्त्र देने की इच्छा पूरी नहीं हो जाती।
      तीन दिन यों ही गुजर गए। तीन दिन बाद एक आश्चर्यजनक बात यह हुयी कि एक छात्र को छोड़कर बाकी सभी छात्रों ने अगले दो दिन में अवशेष ट्यूशन फीस का भुगतान कर दिया। यही नहीं दो छात्रों ने तो चालू महीने की ट्यूशन का भी अग्रिम के रूप में भुगतान कर दिया। मैंने अगले दिन उस गरीब छात्र को वस्त्र दिलाने की बात सोची। मैंने तय किया कि उससे पहले इजाजत नहीं लेंगे, सीधे घूमने के नाम पर उसको अपने साथ ले जाएंगे और कपडे की दूकान पर कपडे दिलवाएंगे। मैं अपने साथ रहने वाले दोनों लड़कों और उस छात्र को लेकर एक माध्यम दर्जे की कपडे की दूकान पर गया। यह दूकान पूर्व से इस कारण से परिचित थी कि मैंने रक्षाबंधन के अवसर पर घर जा रहे अपने एक मित्र को उसकी अपनी वहिन को देने के लिए एक साड़ी दिलवाई थी। मैंने दो- दो शर्ट, पेंट, पायजामा के लिए कपड़ा, एक गद्दे के लिए कपड़ा, एक बेड शीट, एक ओढ़ने की गरम चादर, दो पिलो कवर, रजाई लिहाफ उस लडके से पसंद करवाये और उस लडके को घूमने के लिए अन्य दो लड़कों के साथ भेज दिया। मैंने दुकानदार से कॅश मेमो बनाने के लिए कहा। दूकानदार कुछ देर तक मेरी ओर देखता रहा फिर बोला कि अगर मेरी इजाज़त हो तो वह भी कुछ सहयोग करना चाहता है। मैंने मना नहीं किया। उसने कपड़ों का कॅश मेमो बना दिया और अपने नौकर को एक रजाई, गद्दे में रुई भरने वाले और एक टेलर को बुला लाने को कहा। इतने में लडके बापस आ गए। जब मैंने टेलर से उस लडके की शर्ट, पेंट, पायजामा का नाप लेने को कहा तब उस लडके ने हल्का विरोध किया किन्तु अन्य लड़कों के समझाने पर मान गया। मैंने जब रजाई और तकिया भरने तथा कपड़ों की सिलाई के चार्जेज के बारे में पूछा तो कपडे का दूकानदार मेरे सामने बड़ी विनम्रता के साथ बोला कि इतना मैं उसे भी करने दूँ। उसने कहा कि दो दिन के अंदर वह कपडे भिजवा देगा।
      दूसरे दिन कपडे आ गए। मेरे साथ के लडके सभी कपडे उस लडके को उसके कमरे में दे आये। वह लड़का कपडे पहन कर मेरे पास आया और पैर छूने लगा। मैंने उसे ऐसा करने से मना किया और उसे उठाकर गले से लगा लिया। लड़कों के चले जाने के बाद मैंने ईश्वर का धन्यवाद किया और अपनी धृष्टता के लिए उससे माफी मांगी। मैंने उस लड़के को अगले महीने उसके पास जो पुस्तकें नहीं थीं दिलवाईं और प्रत्येक महीने उसकी कॉलेज फीस देने लगा।
      सामान्य तौर पर यह एक साधारण घटना लगती है। यह एक संयोग भी कहा जा सकता है। इस बात के कोई प्रमाण नहीं थे कि ईश्वर ने मेरी प्रार्थना सुनी थी और यह सब उसके आशीर्वाद के फलस्वरूप हुआ था। किन्तु मेरे लिए यह सब अप्रत्याशित था और मैं यह मानने के लिए तैयार नहीं था कि यह सब भगवान से मेरी प्रार्थना का यह फल नहीं है। वह कब और कैसे अपनी लीला दिखाता है जान पाना हमारे वश में नहीं है। उसके असंख्य अदृश्य हाथों का देख पाना भी हमारे वश में नहीं है।
      कुछ लोगों का प्रश्न हो सकता है यह सब करके मुझे क्या मिला। मेरे लिए मेरे जीवन की यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। मैंने अपने लिए ख़ुशी खरीदी। जब भी यह प्रकरण याद आता है मेरा ख़ुशी से दिल भर आता है। फिर यह सब स्वप्न सा लगता है। वह कपडे वाला मेरा एक करीबी मित्र बन गया, आज भी वह मेरा मित्र है। जब मेरा बिक्रीकर अधिकारी के पद पर चयन हो गया तब वह पहला व्यक्ति था जिसने मुझे यह शुभ समाचार सुनाया था। जो लड़का मेरे साथ रहकर बी. एससी. कर रहा था पढ़ने में अच्छा था उसे मैंने फिजिक्स और केमिस्ट्री में कोचिंग दी और उस वर्ष गर्मियों में पी. एम. टी. (Pre Medical Test) प्रवेश परीक्षा में विठाया। प्रथम प्रयास में उसका चयन नहीं हो सका। अगले वर्ष पुनः प्रयास किया और उसका इस बार चयन हो गया। उसे गणेश शंकर विद्यार्थी मेडिकल कॉलेज कानपुर में एडमीशन मिल गया। आज कल वह उत्तर प्रदेश के मैनपुरी शहर में अपना नर्सिंग होम चला रहा है। वह आज भी गरीबों का ख्याल रखता है। मैं आज भी उसके लिए गुरु जी हूँ। मुझसे जो छात्र पढ़ने आते थे सभी ने द्वितीय श्रेणी में अच्छे नम्बरों से इंटरमीडिएट परीक्षा उत्तीर्ण की। एम. एससी. द्वितीय वर्ष में भी मैंने यही सब कुछ जारी रखा। इस वर्ष एक छात्र के अभिभावक ने अपने लडके को अकेला पढ़ाने की जिद की। मैंने उसकी बात मान ली। मैंने कोई ट्यूसन फी तय नहीं की। मुझे आश्चर्य हुआ जब एक माह पूरा होने पर उसने मुझे दो सौ पचास रूपया का भुगतान किया। इस वर्ष मेरी मासिक आय पांच सौ रूपया प्रति माह से अधिक थी। self cooking बंद कर दी गयी। मैं स्वयं और मेरे साथ के दो छात्र स्टूडेंट कैंटीन में खाना खाने लगे। इससे हम लोगों के समय की बचत होने लगी। इसी वर्ष मैं Combined State Services Examination में प्रथम बार सम्लित हुआ और इसी के फलस्वरूप मेरा 1969 बैच से बिक्रीकर अधिकारी (वर्तमान में Assistant Commissioner, Commercial Tax) के पद पर चयन हुआ। कैलाश और दूसरे छात्र ने भी ग्रेजुएशन पूरा कर लिया। मैंने भी अपना एम. एससी. प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कर लिया।
      एक महत्वपूर्ण उपलब्धि यह थी कि जिस शहर में मैं अनजान बनकर आया था उसमें जिस मोहल्ले में मैं रहता था उस मोहल्ले के लोगों ने मुझे बहुत सम्मान और प्यार दिया। इसका कारण यह रहा था कि मेरे कृत्यों की जानकारी मेरे भवन स्वामी को हुयी और उन्होंने मेरे क्रिया-कलापों और स्वभाव के बारे में मोहल्ले के अन्य लोगों को बता दिया था। भवन स्वामिनी जिनकी उम्र उस समय लगभग 65 वर्ष थी को मैं माता जी कहकर सम्बोधित करता था ने मुझे अपना बेटा मानकर मेरा ख्याल रखना शुरू कर दिया। यही नहीं वे त्योहारों के दिन मेरे और मेरे साथ रह रहे दोनों छात्रों के लिए पकवान (special dishes) बनाकर भेजतीं थीं। इसी मोहल्ले में एक डॉक्टर साहब का निवास तथा क्लीनिक था। डॉक्टर साहब एक बड़े इंटरमीडिएट कॉलेज के वाईस प्रेजिडेंट भी थे। एक अवसर पर मुझे कुछ बुखार हुआ। दो-तीन दिन तक बुखार ठीक नहीं हुआ तब मैंने डॉक्टर साहब को दिखाना उचित समझा। डॉक्टर साहब ने देखा और मुझे अपने पास से दवा दे दी। मेरे बार-बार अनुरोध करने पर भी उन्होंने न तो अपनी फीस ली और न ही दवाई के पैसे। उन्होंने मेरे स्वाभाव की प्रसंशा करते हुए पूछा कि क्या मैं इंटरमीडिएट कॉलेज में नियमित रूप से टीचिंग का कार्य करूंगा ? मैंने उनसे विनम्रता पूर्वक यह कह कर मना कर दिया कि इससे मुझे और उन लड़कों को जिनको मैं पढ़ा रहा हूँ कठिनाई होगी। इस पर उन्होंने कहा कोई बात नहीं, मेरी जब भी इच्छा हो मैं उन्हें बता दूँ।
      इस समय को मैं अपने जीवन में अत्यंत महत्वपूर्ण और खुशियों भरा मानता हूँ। शिक्षक मैं आज भी हूँ। मेरे लिए अपने को शिक्षक मानना एक गौरव की बात है। मेरी जिंदगी के कुछ ऐसे ही गिने-चुने प्रकरणों में से यह एक महत्वपूर्ण प्रकरण है। मैंने अपने जीवन के इस अंतराल में खुशियों भरा जीवन जिया है और ख़ुशी की स्थायी पूँजी कमाई है। यह प्रकरण आज भी मुझे ख़ुशी देते हैं। यह मेरी ऐसी पूँजी है जो मेरी मृत्यु के बाद भी समाप्त नहीं होगी क्योकि न तो कोई अन्य इसका उपभोग कर सकेगा और न ही कोई इसे नष्ट कर सकेगा। ऐसे प्रकरणों से सम्बंधित अंतरालों को छोड़कर वाकी जीवन में मैं ऐसा कुछ नहीं कर सका जिसे मैं स्थायी रूप से अपना कह सकूँ।

आज़ादी : Freedom

      आज़ादी अच्छी चीज है और सभी को अच्छी लगती है। किन्तु आज़ादी का विस्तार खुले आसमान की तरह है जिसकी कोई सीमायें नहीं होतीं। ऐसे में यदि हम अपना चरित्र विशेष बनाये रखना चाहते हैं तब हमें अपनी आज़ादी की सीमायें स्वयं निर्धारित करनी होंगी और उन सीमाओं पर होने वाले अतिक्रमण को रोकना होगा।




भ्रष्टाचार और व्यभिचार मुक्त भारत की कल्पना

      कोई भी बच्चा भ्रष्टाचार या व्यभिचार युक्त चरित्र लेकर पैदा नहीं होता। अगर कोई बच्चा बड़ा होकर भ्रष्टाचारी या व्यभिचारी बनता है तो इसके लिए मुख्य रूप से उसको मिले संस्कार, अशिक्षा, उसको मिलने वाली संगति और परिस्थितियां जिम्मेदार होतीं हैं। मेरे विचार से इन पहलुओं पर विचार किये बिना भ्रष्टाचार और व्यभिचार मुक्त भारत की कल्पना नहीं की जा सकती है। भ्रष्टाचार और व्यभिचार दोनों ही देश के विकास में वाधक हैं।

व्यवहारिक दृष्टिकोण : Practical Approach

        जिस प्रकार मुंह से बड़े आकार के फल को छोटे आकार के टुकड़ों में काट कर आसानी से खाया जा सकता है उसी प्रकार अनेक बड़े कार्यों जिनकी विशालता को देखकर उनका पूरा किया जा सकना असंभव लगता है और जिनकी विशालता को देखकर हम घबरा जाते हैं को विभिन्न चरणों में विभाजित कर लेने पर आसानी से किया जा सकता है। किसी बड़े कार्य को प्रारम्भ करने से पूर्व हमें इस पर अवश्य विचार करना चाहिए।

Sunday, November 2, 2014

क्रोध विनाशक संकल्पित मुद्रिका : Anger Destroyer Conceptual Ring

      मैंने पूर्व में एक आर्टिकल "विनाशकारी क्रोध" शीर्षक से पोस्ट किया था और सुझाव दिया था कि जिस समय किसी व्यक्ति को क्रोध आता है उसी समय अगर उसका ध्यान किसी अन्य वस्तु, विचार, दृश्य आदि की ओर मोड़ा जा सके तब उसका क्रोध शान्त हो सकता है । किन्तु यह तथ्य भी विचारणीय हैं कि व्यक्ति अकेला होने पर क्रोध के आवेश में आ सकता है और कुछ भी गलत करने का निर्णय ले सकता है। अगर किसी व्यक्ति के क्रोधित होने के समय अन्य व्यक्ति पास में हैं भी तब यह समस्या हो सकती है ऐसे व्यक्तियों को यह मालूम ही न हो कि जिस विषय या वस्तु को लेकर व्यक्ति क्रोधित हो रहा है उससे उसका ध्यान हटा दिया जाय अथवा यह भी हो सकता है कि उपस्थित व्यक्तियों में से किसी में भी क्रोधित हो रहे व्यक्ति से कुछ कह सकने का साहस न हो। ऐसा भी हो सकता है कि क्रोधित हो रहा व्यक्ति किसी की वात सुने ही नहीं। ऐसे में एक यही विकल्प बचता है कि क्रोध आने के समय क्रोध से ग्रसित होने वाले व्यक्ति के पास कोई वस्तु ऐसी होनी चाहिए जो उसे याद दिलाये कि उसे क्रोध नहीं करना है। क्रोध विनाशकारी है। साथ ही ऐसी वस्तु क्रोधित होने जा रहे व्यक्ति की सोच किसी अन्य विचार या वस्तु पर केंद्रित कर दे।
      मित्रो ! मेरा जन्म एक गाँव में हुआ है और मेरा बचपन गाँव में ही गुजरा है। मैंने बचपन में देखा है कि घरेलू कामकाजी अधेड़ उम्र और उम्रदराज अनेक महिलाएं किसी विशेष बात या कार्य को याद रखने के लिए अपनी साड़ी / धोती के एक छोर पर एक गाँठ बाँध लेतीं थी। यह गाँठ सदैव उनके साथ होती थी तथा जब तक खोली न जाय यह याद दिलाती रहती थी कि उन्हें अमुक काम करना है। अगर कार्य याद नहीं रहता था तब वह गाँठ देखकर अपनी याददास्त से पता करतीं थीं कि उन्होंने यह गाँठ किस लिए लगाई थी। मेरा विचार है कि प्रथा का उपयोग हम क्रोध नियंत्रण के लिए भी कर सकते हैं। पर आज पहले तो हम शरीर पर ऐसा वस्त्र धारण नहीं करते जिसमें गाँठ लगाई जा सके दूसरे अगर हम में से कोई ऐसा वस्त्र पहनते भी हैं तब ऐसे लोग गाँठ लगाना उपयुक्त नहीं पायेंगे। अगर गाँठ बाँध भी लें तब हम अनेक लोगों को इसका उद्देश्य बताने और समझाने में कठिनाई महसूस करेंगे। हमें ऐसा एक प्रतीक चाहिए जो हमारे संकल्प को याद दिलाता रहे, सदैव हमारे साथ रहे, इसके धारण करने से हमें अरुचि न हो और प्रतीक सामान्य लगे। यद्यपि हम क्रोध न करने का संकल्प ले सकते हैं किन्तु संभव है कि क्रोध आने के समय हमें संकल्प याद ही न रहे। ऐसी स्थिति में कोई वाह्य वस्तु या प्रतीक ही उपयुक्त हो सकता है।
      आजकल अनेक व्यक्ति अपनी उँगलियों में मुद्रिकाएं (Rings) पहनते है। किसी व्यक्ति को मुद्रिका पहने देखने पर कुछ भी असामान्य नहीं लगता है। कुछ लोग इन्हें आभूषण के रूप में धारण करते हैं, वहीं कुछ लोग ग्रहों के बुरे प्रभाव को कम करने के उद्देश्य से धारण करते हैं। कुछ लोग मुद्रिका को ring ceremony के अवसर पर धारण करते हैं। ऐसी मुद्रिका पर नज़र पड़ने पर ऐसे व्यक्ति के मन मष्तिष्क में रिंग सेरेमनी की याद ताज़ा हो जाती है। मुद्रिका का धारण करना सभ्य समाज में भी अशोभनीय नहीं माना जाता है। मेरा विचार है कि मुद्रिका का उपयोग प्रतीक के रूप में क्रोध पर नियंत्रण पाने में भी कर सकते हैं। हम जानते हैं कि कलाकार द्वारा निर्मित भगवान या किसी देवी-देवता की मूर्ति में श्रद्धा तब तक उत्पन्न नहीं होती जब तक उसमें विश्वास व्यक्त कर उसकी प्राण प्रतिष्ठा न की जाय। इसी प्रकार जब तक हम मुद्रा में संकल्प रुपी प्राण प्रतिष्ठा नहीं करेंगे तब तक वह एक सामान्य मुद्रा ही रहेगी। मुद्रिका धारण करने से पूर्व इसका सशक्तिकरण आवश्यक है ताकि क्रोध भावना के प्रकट होने से पूर्व ही हम इसके आगे आत्मसमर्पण कर सकें।
      इसके लिए बायें हाथ की तर्जनी उंगली में पहनने के लिए (अगर आप तर्जनी उंगली में पूर्व से ही कोई मुद्रिका धारण कर रहे हैं तब किसी अन्य उंगली के नाप की) अपनी पसंद की मुद्रिका ले सकते हैं। मुद्रिका देखने में रुचिकर लगे किन्तु ऐसी न हो जिसके सामने आपके विचारों का कोई महत्व ही न रह जाय। इसको धारण करने से पूर्व यदि आप ईश्वर में विश्वास रखते हैं तब पवित्र मन से ईश्वर का स्मरण करें, यदि ईश्वर में विश्वास नहीं करते हैं तब ऐसे व्यक्ति या देवी-देवता जिसमें आपकी अटूट श्रद्धा और विश्वास है अथवा जिससे आप अटूट प्रेम करते हैं, का स्मरण करें और संकल्प लें कि आप कभी भी क्रोध नहीं करेंगे। अगर क्रोध का भाव कभी उत्पन्न होगा तब यह मुद्रिका आपको आपके संकल्प का स्मरण कराएगी और आप इसके दर्शन को अपने इष्ट का आदेश मान कर क्रोध का त्याग कर देंगे। इसके उपरांत आप मुद्रिका को धारण कर सकते हैं।
      अपने विश्वास को दृढ़ करने के लिए आप जिस समय भी मुद्रिका उंगली से निकालें या धारण करें अपने द्वारा किये गये संकल्प को याद करें। आप अपने परिवारीय सदस्यों, मित्रों और संपर्क में आने वाले व्यक्तियों के मध्य गर्व से बतायें कि आपने क्रोध करना छोड़ दिया है। इससे क्रोध पर नियंत्रण पाने के लिए आपको आत्मबल मिलेगा। जब कभी भी आप महसूस करें कि आपको क्रोध आ रहा है आप दायें हाथ की उँगलियों से मुद्रिका पकड़ कर उंगली में घुमाने लगें और अपने इष्ट और संकल्प को याद करें। आपका ध्यान क्रोध से हट जायेगा, क्रोध के क्षण निकल जायेंगे। अगर किसी अवसर पर आप सफल नहीं होते तब क्रोधित होने के लिए पश्चात्ताप करें। जिस व्यक्ति पर क्रोधित होकर उसका दिल दुखाया है उसके सामने अपने कृत्य के लिए खेद (sorry) व्यक्त करें । मेरा विश्वास है कि इससे आपको क्रोध पर नियंत्रण पाने में अवश्य ही सफलता मिलेगी।