Thursday, May 22, 2014

QUALITIES OF A GOOD CIVIL SERVANT

कामर्सियल टैक्स विभाग के मेरे मित्रो !
आप सभी राजपत्रित अधिकारी हैं , आपका चयन लाखों में से हुआ है।  राज्य सरकार ने आपको महत्त्वपूर्ण दायित्व सौंपा है।  मेरी इक्षा और आप सब के लिए शुभकामना है कि आप एक अच्छे अधिकारी बने, आप अपने अच्छे कार्य और आचरण से अपने  उच्चाधिकारियों का विश्वास जीत कर उनका स्नेह पायें, नियमित रूप से समय पर प्रोन्नति पायें,  आप अपने अधीनस्थ  कार्यरत अधिकारियों, कर्मचारियों, आगंतुकों और संपर्क में आने वाले अन्य व्यक्तियों से सम्मान पायें और समाज के लिए जिम्मेदार व्यक्ति बनें। किन्तु यह सब कैसे सम्भव  हो सकता है? इस उद्देश्य से मैं अपने अनुभव के आधार पर यहां कुछ मार्गदर्शक विन्दुओं की ओर आपका ध्यान आकर्षित करने की अनुमति चाहता हूँ। 
१.  आप आत्म-विश्वास और आत्म -सम्मान अर्जित करें। 
२. आप आचरण में विनम्रता और शालीनता का समावेश करें। माना आप किसी को गुड़ (मिठाई या sweet) नहीं दे सकते पर गुड़ जैसी मीठी बात तो कर सकते हैं ।  
३. अपने कार्य के सम्बन्ध में जो आगंतुक आप से मिलने आते हैं उनको अकारण प्रतीक्षा न करायें।  अगर आप किसी अन्य कार्य में व्यस्त हैं अथवा आगंतुक से मिल पाने में विलम्व होने की संभावना है तब आगंतुक को तदानुसार स्वम  अथवा कर्मचारी के माध्यम से सूचित अवश्य कर दें। 
४. किसी भी मामले में यदि आगंतुक के हितों के विपरीत आप कोई आदेश पारित कर रहे हैं तब आदेश में कारणों का उल्लेख अवश्य करें।  यहाँ तक मामलों की सुनवाई स्थगित किये जाने के लिए प्रार्थना-पत्रों को अस्वीकार करते समय भी कारण का उल्लेख अवश्य करें। लॉ ऑफ़ नेचुरल जस्टिस के सिद्धांत के आधार जहां सम्बंधित व्यक्ति के हितों के विपरीत निर्णय पारित होना है वहां उसे सुनवाई का अवसर अवश्य दिया जाय।  इसके अतिरिक्त प्रत्येक प्रार्थना-पत्र देने वाले को यह जानने का हक़ है कि उसके प्रार्थना पत्र पर क्या निर्णय हुआ और यदि विपरीत निर्णय लिया गया तब इसका कारण क्या रहा है।   
५. आपका मुख्य कार्य विभिन्न कर अधिनियमों, वैट एक्ट , एंट्री टैक्स एक्ट और सेंट्रल सेल्स टैक्स एक्ट  के अंतर्गत कार्यवाहियों पर आधारित है। इनके प्राविधानों की यथोचित जानकारी के अभाव में विधि सम्मत निर्णय लिया जाना सम्भव नहीं है। अतः यह आवश्यक है कि आप इन एक्ट्स के प्राविधानों का ठीक प्रकार से अध्ययन कर लें।  माननीय उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णयों का अध्ययन करते रहें। विन्दु  जिस पर निर्णय लिया जाना है से सम्बंधित प्राविधान का यदि आपने अध्ययन नहीं किया है तब प्राविधान का अध्यन करने के बाद ही निर्णय दें। अगर आवश्यकता समझें तब अपने वरिष्ठ अधिकारी से मार्गदर्शन ले लें अथवा अपने ऐसे सहयोगी अधिकारियों जो विधिक प्राविधानों की समुचित जानकारी रखते हों से विचार विमर्श कर लें। विधिक प्राविधानों में जब कोई नए संशोधन आते हैं या जब कोई नयी विज्ञप्ति आती है या जब कोई परिपत्र आता है तब उसका अध्ययन सावधानीपूर्वक करें। 
६. आपके प्रत्येक निर्णय से यह परलक्षित होना चाहिए कि आपने न्याय किया है आपका निर्णय न्याय संगत है। 
७. आपका कोई निर्णय पूर्वाग्रह से ग्रषित नहीं होना चाहिए। 
८.  कार्यालय आने के समय का ध्यान रखें। विलम्ब से कार्यालय आना किसी भी स्थित में क्षम्य नहीं है आपके देर तक कार्यालय में बैठने पर कार्यालय आने में विलम्ब क्षमा नहीं किया जा सकता है। यदि किसी दिन अपरिहार्य  कारणवश विलम्ब संभावित है तब इसकी सूचना अपने कार्यालय और निकटस्थ उच्चाधिकारी को दूरभाष पर अवश्य दे दें। 
९. आप अपने अधीनस्थों पर यथोचित नियंत्रण रखें।  जो कार्य आपके द्वारा किया जाना अपेक्षित है उसको किसी अधीनस्थ अधिकारी या कर्मचारी से न करवायें। अन्यथा आप अधीनस्थ कर्मचारियों पर नियंत्रण का नैतिक दायित्व खो देंगे।   
१०. समय समय पर अधीनस्थ कर्मचारियों के कार्य की मॉनिटरिंग भी करते रहें।  अगर कर्मचारी को किसी कार्य के करने में कठिनाई आ रही है तब उसे डाँटने फटकारने के बजाय उसकी कठिनाई जाने और उसका निवारण करें।  अगर कोई वरिष्ठ कर्मचारी उपलब्ध हो तब उसको कनिष्ट कर्मचारी की सहायता के लिए निर्देशित कर दें। 
 ११.  अगर आप चाहते हैं की कर्मचारी अपनी पूर्ण क्षमता और दक्षता से कार्य कर सकें तब कर्मचारियों का तनाव मुक्त रहना भी आवश्यक है। इसके लिए कर्मचारियों को करीब से भी जानने की आवश्यकता होती है साथ ही उनके अच्छे और समय से किये गए कार्य की सराहना भी आवश्यक होती है।   
१२. कभी कभी कुछ कार्यालयों में कुछ ऐसे कर्मचारी भी मिल जाते हैं जो न तो खुद काम करना चाहते हैं और न ही अन्य कर्मचारियों को उनका काम ठीक प्रकार से करने देते हैं।  ऐसे कर्मचारियों द्वारा की गयी त्रुटियों पर उनका स्पस्टीकरण लेकर अभिलेख पर रखना चाहिए।  प्रारम्भ में चेतावनी व्यक्तिगत पत्रावली से देनी चाहिये  किन्तु यदि कर्मचारी फिर भी अपने कार्य में सुधार नहीं करता है तब उसे दण्डित किया जाना चाहिए और उसके बारे में उच्चाधिकारियों को सूचित किया जाना चाहिये। 
१३. आपके निर्णयों में एकरूपता होनी चाहिए। इससे आपकी निष्पक्षता प्रमाणित होती है. सामान प्रकार के मामलों में सामान प्रकार के निर्णय संवैधानिक आवश्यकता है।  यदि परिस्थितियां भिन्न हैं तब भिन्न भिन्न निर्णय लिए जा सकते हैं। माननीय उच्चतम न्यायलय या उच्च न्यायलय के निर्णय को लागू करते समय निर्णय को पूरा पढ़ें और समस्त परिस्थितयों पर विचार करें। 
१४. सम्परीक्षा आपत्तियों से बचें।  अनेक मामलों में केंद्रीय विक्रय कर अधिनियम के अंतर्गत पंजीयन प्रमाण पत्र (फॉर्म - बी ) जारी करते समय फॉर्म- सी का प्रयोग त्रुटिपूर्ण ढंग से अनुमन्य कर दिया जाता है। व्यापारी इसका फायदा उठाता है किन्तु उसके विरुद्ध कार्यवाही संभव नहीं रह जाती है। कालांतर में सम्परीक्षा दाल द्वारा आपत्ति उठायी जाती है।  अधिक राजस्व निहित होने पर मामला पब्लिक एकाउंट्स कमिटी में पेश होता है जहाँ पर उच्चाधिकारिर्यों को त्रुटि करने वाले अधिकारी के दण्डित हो जाने के बाद भी शर्मिंदगी उठानी पड़ती है।  यही सब कर लगने से छूट जाने वाले मामलों में भी होता है। 
१५. कार्य करने में हड़बड़ी न करें। आप अर्ध न्यायिक अधिकारी हैं। राज्य सरकार का राजस्व सुरक्षित रखकर उसकी समय से वसूली आपका दायित्व है इसे धैर्य और निष्ठां के साथ पूरा करें।        
      

RELIGION IS BY PRACTICE

         किसी व्यक्ति का धरम उसके कृत्यों और आचरण से जाना  जाना चाहिए न कि उसके एक धर्म विशेष के अनुयायियों के परिवार में जन्म लेने से। अगर धर्म आजीवन जन्म से रहता तब -
(१) धर्म परिवर्तन संभव नहीं होता ; और 
(२) अधर्म या अधर्मी जैसे शब्द अस्तित्व में नहीं होते । 

RELIGION FOR PRACTICE : धर्म अनुशरण के लिए

यदि धर्म ग्रंथों के पन्नों पर प्रयोग का फरुआ न चलाया गया तब धर्म न रहकर एक काला आवरण रह जाएगा जिसके पीछे राम-नाम कहते हुए मानव नहीं निर्जीव शिला खण्ड होंगे।  ऐसी स्थिति में मैं अपने विशेषाधिकार अथवा अनाधिकार चेस्टा से प्रक्रिया को धर्म की निंदा करना या धर्म की मखौल उड़ाना आदि से ही सम्बोधित करूँगा।
फरुआ = फावड़ा, काला आवरण =black curtain, निर्जीव =Dead, inanimate object, विशेषाधिकार = Special reight, अनाधिकार = without any authority, चेष्टा =efforts. मखौल उड़ाना= To cut a joke

Wednesday, May 21, 2014

TRIBUTE TO A DEPARTED SOUL

        Few words in praise of a departed soul or shedding of some tears on sad demise of the deceased is not a tribute in true sense. If you really want that your prayers should be heard and graced by the Almighty, you, by keeping yourselves within your limits, should try to fill in, with all your abilities and capabilities, the vacuum which the cruel death has created. True and fruitful tribute to the departed soul lies in your creative contribution.  

CAUSE OF SORROWS ACCORDING TO THE GEETA

                Jeevatma ke sukh-dukh ka karana janma aur mrityu ka charka hi hai. In Shrimad Bhagvad Geeta, yoga ( Yuktha) refers to Union with God, the Supreme Power. When some jeevatma becomes free from bondage of birth and death, soul comes in union with the Supreme Soul i.e. the God.

                Chapter 12 of the Geeta deals with Bhakti Yoga. People on this earth worship God in His two forms, “saakaar” or "saguna" and “niraakaar” or "nirguna"  . Shloka 4 of chapter 12 of the Geeta tells about the Bhakti Maarga for those who worship God in His “niraakaar” form. Shloka 4 runs as “संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः । ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः ॥”. Meaning of the Shloka is “Those who have restrained their senses, who are even minded everywhere, who are engaged in the welfare of all the beings, verily, they also come to Me”. Earlier shloka 3 runs as “ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते ।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम् ॥”. Both shlokas read together mean : 
              But those who worship the unchangeable, the inexplicable, the invisible, the omnipresent, the inconceivable, the unchanging, the immovable, and the formless impersonal aspect of God; restraining all the senses, even-minded under all circumstances, engaged in the welfare of all living beings, also attain God.